7 जनवरी 2014 को शाम को मध्य भारत के सबसे बड़े जंक्शन इटारसी(म.प्र.) प्लेटफार्म न. 1 पर खड़ा हुआ था। मुझे यहाँ से अपने गृह नगर कानपुर के लिए गाड़ा पकड़नी थी जो कि पुष्पक एक्सप्रेस थी।अभी 8:10 हो चुके थे मगर पुष्पक अभी नही आयी हुई थी।यहाँ के मौषम में सर्दी कम थी अपेक्षाकृत कानपुर के मगर स्टेशन पर हल्की सी सर्दी मेहसूस की जा सकती थी इसलिए मैंने एक हाथ स्वेटर पहन लिया और ट्रेन का इंतजार करने लगा।
एक लम्बे ,थकान भरे और दिमागी थकावट के साथ परेशानी बाले सफ़र को पूरा करके यहाँ तक पहुँचा था।यहाँ से सोचा था कि रिजर्वेशन करवालूँगा और आसानी से बिना परेशानी के घर पहुँच जाऊँगा लेकिन पता नही किसका चेहरा देखकर मैं निकला था जोकि मुझे रिजर्वेशन भी नही मिला किसी भी श्रेणी में।
आखिर मैंने तय कर लिया था कि पहले जनरल में देखुँगा अगर जगह मिलती है तो ठीक नही तो किसी भी डिब्बे में घुस जाऊँगा और जो आराम से टिकट कन्वर्ट करा कर यात्रा का मजा लूँगा।
8:25 पर ट्रेन का आगमन तो हो गया लेकिन जैसी कि उम्मीद कम ही थी जगह मिलने की वही हुआ मगर मुझे लगा कि जगह बन सकती है इसलिए इंजन के बाद के दुसरे डिब्बे यानि विकलाँग और महिला बोगी के बाद बाली बोगी में चढ गया।
सामने की सिंगल सीट पर एक सम्मानीय महोदय बैठे हुए थे जिनके कपडे उनका साथ छोडे हुए थे सिर्फ कपडों की क्या बात करें उनके शरीर के कुछ हिस्से भी बगापत पर उतारु थे।उसी तरफ की चार बाली सीट पर पाँच बच्चे बैठे हुए थे जिनकी उम्र औसतन 10 से उपर ही रही होगी। मगर उनके कपडे और वो भी सर्दी में देखकर दंग रह गया सिंगल शर्ट और वो भी हा? मुझे तो उन पर आश्चर्य हो रहा था।मैंने उन्ही को खिसकाखर अपने बैठने लायक जगह बनाई और उनके साथ वैठ गया।मेरी सामने बाली बर्थ पर दो महिलायें और एक आदमी के साथ दो कम उम्र के बच्चे भी थे जो सो चुके थे ऊपर की दोनो वर्थों पर कोई महाश्य सोये थें।
सभी अपने में मगन थे और वो बच्चे थी मेरा मन उनसे बात करने को हो रहा था।
मैंने उनसे एकाएक पूँछ ही लिया - कहाँ जाओगे तुम लोग??
तो उनमें से एक जो खिडकी के पास बैठ हुआ था जिसके मुंह में शायद कुछ था वो उसे चबाता हुआ बोला - लखनऊ....
लखनऊ से ही हो??,
हाँ वहीं उतरेगें वहाँ से गाँव जायेगें.....ौर तुम??
हमतो कानपुर तक जायेगें......कहाँ से आ रहे हो ???
मुम्बई से......
मुम्बई से ...... गुड ..... क्या करते हो??
हम वहाँ कपड़ो की फैक्ट्री में काम करत हैं .....
कपड़ो की फैक्ट्री में( मैंने आश्चर्य से उनकी तरफ देखा) क्या उम्र होगी तुम सबकी ???
मैं 14 का हूँ और ये वंटी,मन्नू 12 के और झग्गू 13 का ये कल्लु 10 का है।(उसने सहजता से जबाब दिया)
तुम इतनी कम उम्र के हो और तुम्हें काम पर रख लिया गया???
(मैं विस्मित था ,मेरी आँखों का साईज कुछ बढ गया था)
हाँ रख लिया गया मेरे साथ रामू चाचा हैं न वो हि लगवाये थे हमक।
क्या तनख्वाह मिलती है तुमको??
मुझे चार हजार बकाया सबको तीन तीन और रहना फ्री।
खाना??
वो हमें खुद ही बनाना पड़ता है ....
तो तुमको क्या बचता होगा ??
एक या दो हज़ार रूपये .....
मुझे समझ नही आ रहा था की सिर्फ एक हज़ार या दो हज़ार रूपये के लिए कारोनों का अमूल्य बचपन बर्बाद हो रहा है ....
मेरे पास कहने के लिए शब्द नही थे,मैं खामोश होकर रह गया।फिर एकाएक मेरे दिमाग में सवाल कौंधा
- तुम सब भाई हो क्या??
नही ये झग्गु और कल्लु सिर्फ भाई हैं और कोई नही बकाया हम सब तो अलग अलग घरों से हैं।
मैंने अपनी डायरी निकालकर उसके गाँव का पता लिखा और उन सबके बारे में जो भी जान सकता था सब नोट कर लिया और उसके बाद अ्पनी जगह से खडा होकर गेट पर आकर खड़ा हो गया।
मेरे दिलों दिमाग पर उनकी कहानी का काफी असर हुआ ये मैं भी जानता था कि हमारे देश में तो कानून और सुरक्षा व्यवस्था सिर्फ दिखावे के लिए ही है असल में होता क्या है कुछ नही।
कितनी अजीब बात है कि हमारे यहाँ बच्चों को कितने विशेषाधिकार प्राप्त है लेकिन यहाँ के बच्चे तरसते हैं।
भोपाल आया और चला भी गया कुछ लोग उतर गये और कुछ लोग चढ आये ।मगर इस बीच मुझे सिंगल बाली सीट मिल गई और घडी ने भी दस बजा दिया था। मुझे कुछ सर्दी सी मेहसूस होने लगी थी ....सारे बच्चे एक दूसरे से चिपककर सो गये थे मुझे भी हल्की नींद आ रही थी।मैंने जैकिट निकालकर पहन ली और सोने का प्रयास करने लगा।
काफी वक्त गुजर गया मुझे कानों में सर्दी मेहसूस रहने लगी मैंने खिडकी से बहार की तरफ देखा तो पाया काली सुनसान रात में हर तरफ बस ट्रेन की आवाज ही थी ।मैंने देखा बगल बाले बच्चे जाग रहे थे और अपने हाथों से अपने पैरों को समेटे हुए थे मैंने उनसे पूँछा - क्या बात है और कपडे नही लिए हो क्या?? कपडे पहन लो।
उनमें से एक बच्चा बोला नही हम लोग लेकर नही आये हैं।
मैंने अपने बैग से एक शाल निकाला और उनको उढा दिया ।उन्हें कुछ राहत सी मेहसूस हुई और मैंने भी राहत की साँस लेने की कोशिश की।घडी में समय देखा तो एक बजने को था।यानि हम बीना निकल चुके थे और जल्द ही ललितपुर पहुँचने बाले थे।घडी तो अपनी गति में चलकर ट्रेन के पहियों के संग सुर में सुर मिला रही थी।मगर चिन्ता करने बाली बात तो ये थी क सर्दी भी निरन्तर बढती जा रही थी।मुझे उन मासूमों की फिक्र सताने लगी।
मैं अन्दर से कपडों से जकडा हुआ था लेकिन फिर भी सर्दी मेहसूस कर रहा था।लेकिन वो बच्चे तो बस सिंगल कपडों में थे ,उन्हें सर्दी से छणिक राहत ही मिल सकी थी क्युँकि सर्दी की तीव्रता अधिक हो गई थी।
मेरे पास कोई भी इतना बडा कपडा नही था जो उन्हें ढक सके सिवाये एक टॉवल के जिसे भी मैंने उन्हें दे दिया ताकि उन्हें कुछ आराम मिल सके।बैंग में रखा एक रुमाल और जेब का रुमाल दोनो को निकालकर छोटे-छोटे दो बच्चों के कान बाँध दिये।
मेरे सहयात्री मेरे हर कृत्य को ध्यान से देख तो रहे थे मगर कुछ मदद नही कर रहे थे।हाँ कुछ लोग उस मौके पर भी उन बच्चों की अक्ल और उनके माता पिताओं को कोसने में लगे हुए थे।
मैं वापस आकर अपनी सीट पर बैठ गया ,मेरे चेहरे पर बैचेनी के भाव थे शायद कुछ लोगों को वो पागलपन लग रहा था,मगर सब बडी कौतुकता से हमें घूरने में लगे हुए थे।
ऊपर बाली बर्थ पर लेते हुए महोदय अपने कम्बल को समेटने लगे और जाने की तैयारी करने लगे ........
मैंने उनसे पूंचा आपको कहाँ जाना है ??
वो बोले - हमें यहीं ललितपुर उतरना है
तो क्या आपका ये कम्बल हमें दे सकते हैं ???
उसने मुझे लगभग खा जाने बाली नज़रो से देखा और मुझसे बोले - जनाब साढ़े नौ सौ का लिया था .....
हम भिखारियों के लिए नही खरीइद्ते .......
मुझे तो सुनकर बुरा लगा और क्रोध भी आ गया
मैं अपनी जगह से खड़ा हुआ और आक्रोशित आवाज में बोला- क्या कहा आपने ....जरा फिर से कहना ???
वो हालात को समझ गए और बड़ी शालीनता से मुझसे बोले - यार भाई मैं इन लोगों की बात कर रहा था ..
आपने भले ही बात किसी की भी कही हो लेकिन बुरी मुझे लगी है .......इसलिए आप अपने कम्बल का चाहो तो मूल्य ले सकते हो और मैं अपनी जेब से सात सौ रूपये निकाल कर उनकी तरफ बढ़ा दिया
उन्होंने चुपचाप रूपये रख लिए और कम्बल निकालकर मेरी तरफ बढा दिया|
मैंने उस कम्बल में उन पांचो बच्चों को लपेट दिया और अपन मफलर तीसरे बच्चे को बाँध दिया |
मेरे कानों से तेज हवाए टकरा रहीं थी और वो बच्चे आराम की नींद सो चुके थे ...मगर मेरी आँखों से नींद गायब थी .....
ललितपुर को ट्रेन पार कर गयी और सर्दी अत्यधिक तीव्र होने लगी ......मुझे अपने शरीर के गिरते हुए तापमान का अहसास होने लगा था और जब मुझे लगने लगा की आब मेरी क्षमता से ज्यादा सर्दी है तो मैंने एक आखिरी तरीका आपनाया और अपने बेग से एक बनियान को कानों से बांध लिया .......
झाँसी आउटर पर ट्रेन रुकी कुछ वर्दी धारी दनान चढ़ते हुए चले आये ....और आकर सबसे टिकट मांगने लगे ....
मैं बड़े गौर से उनके टिकट चैक करने के तरीके को देख रहा था ...अगर कोई गंधे कपडे या ख़राब रूप रंग से या अव्व्वस्थित रूप में है तो वो उसका ही टिकट चैक कराने को बोलते और जिनकी छवि रौबदार लगती उनसे कुछ न कहते ...
एक सिपाही दनदनाता हुआ आकर मेरे बाले कम्पार्टमेंट में नीचे सोये हुए लोंगो को गरियाते हुए बन्दूक के बैट के सहारे उठाने लगा ...
वो बिना शिष्टाचार और सदचक का उपयोग करे दनदनाता बडबडा रहा था ,,,.....इसी उठा पाठक में सारे बच्चे जाग गए उसने बच्चों से टिकट मांगे तो उन्होंने टिकट दिखा दिए ..
मगर टिकट जो भी थे वो सब हाफ थे ...(कानूनन सही थे )
लेकिन इस पर पोलिस बाले साहब ने बिना कुछ कहे उनका कम्बल हटा दिया और उनको गरियाने लगे ..और उस बच्चे के कुछ कहने पर उसके गालों पर दो तीन चांटे जड़ दिए ...मैंने सबसे पहले वो कानो की बनियान उतारी .....बालों पे हाँथ फेरा और फिर उससे रूबरू हुए
हैलो ..... क्या बात हैं ???
उसने मुझे घूर कर देखा ,...
मैंने उससे दुबारा पूंचा- प्रोव्लम क्या है तुम्हारी ??....है तो उनके पास टिकट
वो एक दम रौबदार आवाज में मुझसे बोला - तुमसे मतलव ...??
मतलब हमसे हो या न हो चुपचाप काम करो ...और बकलोली मत करो ..वर्ना ....
वर्ना क्या मरेगा हमें .....माधर....... उसका इतना बोलना यानि
पहला झन्नाटेदार सीधा उसके गाल पर और दूसरा मुक्का नाक पर...........इतने में ही जनाब की नाक ने ने रायता निकालकर फैंक दिया था .....
मेरी बात पूरी होने से पहले उसके दोनों साथी भी वहां आ पहुंचे - एक ने ज्युन्ही मेरे कंधे पर हाँथ रखा मैं उसे पकड़कर पूरा घूम गया जिसके चलते उसका हाँथ ईठ गया और वो निशह हो गया और माहौल गहमागहमी का हो गया...देख लेने कानूनी क्रिया करने ..जेल में डालने बाले शव्दों का आदान प्रदान होने लग गया ....उन्होंने बायर्लैस क्र दिया और हमने भी एक काल कर दिया ....माहौल स्शंत होकर भी गर्म था ....
मगर आब कोई भी मेरे पास आने की कोशिश नही कर रहा था .....मैंने अपना विजिटिंग कार्ड उनकी तरफ उछाला और उनसे बोला - ये रहा मेरा पता ...जो करना है कर लेना ....
ट्रेन ने हॉर्न दिया आंगे बढ़ने के लिए गाड़ी स्टेशन पर पहुँचते ही आठ दस बन्दूक धारी डिब्बे में चढ़ गए और आनन फानन से मुझे गिरफ्तार कर लिया गया .. हम ट्रेन से उतारकर ठाणे में पेश किये गए जहाँ मुझ पर गंभीर अपराधिक धाराओं के केश दर्ज कर दिए गए .आऔर हमारी पुलिसिया खातिरदारी करनी शुरू हो गये ..ज्यादा वक़्त नही हुआ दस या पांच मिनट और ...उसी रात को हमारे मित्रों के पहुचने से केश वापस ले लिया गया ...और वो दोनों मेरे सामने पेश किये गए ......सामने बाला शक्श आ चूका था और उसके बाद हमें समझौता करने के लिए बोला जाने लगा मगर हम तैयार न थे ...हमारा मकसद था की भले ही मेरे कृत्य के लिए मुझे सजा दी जाए लेकिन उन भ्रष्टों और गलत लोगों को न छोड़ा जाए.... उन्होंने आश्वाशन के साथ कार्यवाही का भरोसा दिलाकर छोड़ दिया .....मैंने भी सोचा एक गंभीर अपराधिक धारा से तो बच्च\ गए हैं कमसे कम एक सुधरने का मौका जरुर दुसरे को देना चाहिए ...मै उनके पास' गया और उनसे सिर्फ चेतावनी देक्र छोड़ देने की अपील की ........
मेरे इस व्यवहार से वो लोग कुछ खुश हो सके जिन्हें लगा था की अब उन्हे नि;ल्म्बन झेलना पड़ेगा |
मामला शांत हो गया और हम वापस अपने गंतव्य की तरफ बढ़ चले ....
किसी ने सच ही कहा है कुछ पुलिस बालों के ये फितरत ही होती है की वो जबतक ईनाम न पायें तब तक मानते ही नही हैं .......
जैसे तैसे करके हम कानपुर तो पहुँच गए और उसके
कुछ दिनों बाद हमारी एक टीम फरबरी में उनके यहाँ गयी और उन पंचों बच्चो को मना कर उनके पिता के साथ कानपुर ले आये ...जहाँ वो पाँचों बच्चे हमारे साक्षरता मिशन २०१४ के तहत शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और उनके रहने खाने की व्यवस्था संस्था द्वारा प्रदान की जा रही है |उन पोलिस बालों की पोस्तिंगे वहां से हट चुकी हौं ......मगर मैंने उन सभी पोलिस बालों पर केश दर्ज कराया था जिन्होंने मेरे साथ थाने में अभद्र व्यवहार किया था ...जिसमें कुछ को निलम्बन झेलना पड गया था .......वहुत कम लोग हैं जो उस घटना का सच जानते हैं ....
उस दिन अक्रोश वश हमने जो किया वो गलत था..मगर सच के साथ थे इस बात की ख़ुशी थी .... आज कुछ बच्चों के बचपन सवंर रहे हैं...उनमे से कोई न कोई तो आंगे जाकर अपना नाम जग में रोशन करेगा ....ये हमें विशवास है ....मगर ये रिश्वत बाजी और अशभ्य आचरण खास तौर पर पुलिसिया व्यवहार में सुधार होना चाहिए |
मुझे पोलिस की मार खानी पड़ी क्यूंकि मैं कोई हीरो नही था ...
जी.आर.दीक्षित
दाऊ जी
एक लम्बे ,थकान भरे और दिमागी थकावट के साथ परेशानी बाले सफ़र को पूरा करके यहाँ तक पहुँचा था।यहाँ से सोचा था कि रिजर्वेशन करवालूँगा और आसानी से बिना परेशानी के घर पहुँच जाऊँगा लेकिन पता नही किसका चेहरा देखकर मैं निकला था जोकि मुझे रिजर्वेशन भी नही मिला किसी भी श्रेणी में।
आखिर मैंने तय कर लिया था कि पहले जनरल में देखुँगा अगर जगह मिलती है तो ठीक नही तो किसी भी डिब्बे में घुस जाऊँगा और जो आराम से टिकट कन्वर्ट करा कर यात्रा का मजा लूँगा।
8:25 पर ट्रेन का आगमन तो हो गया लेकिन जैसी कि उम्मीद कम ही थी जगह मिलने की वही हुआ मगर मुझे लगा कि जगह बन सकती है इसलिए इंजन के बाद के दुसरे डिब्बे यानि विकलाँग और महिला बोगी के बाद बाली बोगी में चढ गया।
सामने की सिंगल सीट पर एक सम्मानीय महोदय बैठे हुए थे जिनके कपडे उनका साथ छोडे हुए थे सिर्फ कपडों की क्या बात करें उनके शरीर के कुछ हिस्से भी बगापत पर उतारु थे।उसी तरफ की चार बाली सीट पर पाँच बच्चे बैठे हुए थे जिनकी उम्र औसतन 10 से उपर ही रही होगी। मगर उनके कपडे और वो भी सर्दी में देखकर दंग रह गया सिंगल शर्ट और वो भी हा? मुझे तो उन पर आश्चर्य हो रहा था।मैंने उन्ही को खिसकाखर अपने बैठने लायक जगह बनाई और उनके साथ वैठ गया।मेरी सामने बाली बर्थ पर दो महिलायें और एक आदमी के साथ दो कम उम्र के बच्चे भी थे जो सो चुके थे ऊपर की दोनो वर्थों पर कोई महाश्य सोये थें।
सभी अपने में मगन थे और वो बच्चे थी मेरा मन उनसे बात करने को हो रहा था।
मैंने उनसे एकाएक पूँछ ही लिया - कहाँ जाओगे तुम लोग??
तो उनमें से एक जो खिडकी के पास बैठ हुआ था जिसके मुंह में शायद कुछ था वो उसे चबाता हुआ बोला - लखनऊ....
लखनऊ से ही हो??,
हाँ वहीं उतरेगें वहाँ से गाँव जायेगें.....ौर तुम??
हमतो कानपुर तक जायेगें......कहाँ से आ रहे हो ???
मुम्बई से......
मुम्बई से ...... गुड ..... क्या करते हो??
हम वहाँ कपड़ो की फैक्ट्री में काम करत हैं .....
कपड़ो की फैक्ट्री में( मैंने आश्चर्य से उनकी तरफ देखा) क्या उम्र होगी तुम सबकी ???
मैं 14 का हूँ और ये वंटी,मन्नू 12 के और झग्गू 13 का ये कल्लु 10 का है।(उसने सहजता से जबाब दिया)
तुम इतनी कम उम्र के हो और तुम्हें काम पर रख लिया गया???
(मैं विस्मित था ,मेरी आँखों का साईज कुछ बढ गया था)
हाँ रख लिया गया मेरे साथ रामू चाचा हैं न वो हि लगवाये थे हमक।
क्या तनख्वाह मिलती है तुमको??
मुझे चार हजार बकाया सबको तीन तीन और रहना फ्री।
खाना??
वो हमें खुद ही बनाना पड़ता है ....
तो तुमको क्या बचता होगा ??
एक या दो हज़ार रूपये .....
मुझे समझ नही आ रहा था की सिर्फ एक हज़ार या दो हज़ार रूपये के लिए कारोनों का अमूल्य बचपन बर्बाद हो रहा है ....
मेरे पास कहने के लिए शब्द नही थे,मैं खामोश होकर रह गया।फिर एकाएक मेरे दिमाग में सवाल कौंधा
- तुम सब भाई हो क्या??
नही ये झग्गु और कल्लु सिर्फ भाई हैं और कोई नही बकाया हम सब तो अलग अलग घरों से हैं।
मैंने अपनी डायरी निकालकर उसके गाँव का पता लिखा और उन सबके बारे में जो भी जान सकता था सब नोट कर लिया और उसके बाद अ्पनी जगह से खडा होकर गेट पर आकर खड़ा हो गया।
मेरे दिलों दिमाग पर उनकी कहानी का काफी असर हुआ ये मैं भी जानता था कि हमारे देश में तो कानून और सुरक्षा व्यवस्था सिर्फ दिखावे के लिए ही है असल में होता क्या है कुछ नही।
कितनी अजीब बात है कि हमारे यहाँ बच्चों को कितने विशेषाधिकार प्राप्त है लेकिन यहाँ के बच्चे तरसते हैं।
भोपाल आया और चला भी गया कुछ लोग उतर गये और कुछ लोग चढ आये ।मगर इस बीच मुझे सिंगल बाली सीट मिल गई और घडी ने भी दस बजा दिया था। मुझे कुछ सर्दी सी मेहसूस होने लगी थी ....सारे बच्चे एक दूसरे से चिपककर सो गये थे मुझे भी हल्की नींद आ रही थी।मैंने जैकिट निकालकर पहन ली और सोने का प्रयास करने लगा।
काफी वक्त गुजर गया मुझे कानों में सर्दी मेहसूस रहने लगी मैंने खिडकी से बहार की तरफ देखा तो पाया काली सुनसान रात में हर तरफ बस ट्रेन की आवाज ही थी ।मैंने देखा बगल बाले बच्चे जाग रहे थे और अपने हाथों से अपने पैरों को समेटे हुए थे मैंने उनसे पूँछा - क्या बात है और कपडे नही लिए हो क्या?? कपडे पहन लो।
उनमें से एक बच्चा बोला नही हम लोग लेकर नही आये हैं।
मैंने अपने बैग से एक शाल निकाला और उनको उढा दिया ।उन्हें कुछ राहत सी मेहसूस हुई और मैंने भी राहत की साँस लेने की कोशिश की।घडी में समय देखा तो एक बजने को था।यानि हम बीना निकल चुके थे और जल्द ही ललितपुर पहुँचने बाले थे।घडी तो अपनी गति में चलकर ट्रेन के पहियों के संग सुर में सुर मिला रही थी।मगर चिन्ता करने बाली बात तो ये थी क सर्दी भी निरन्तर बढती जा रही थी।मुझे उन मासूमों की फिक्र सताने लगी।
मैं अन्दर से कपडों से जकडा हुआ था लेकिन फिर भी सर्दी मेहसूस कर रहा था।लेकिन वो बच्चे तो बस सिंगल कपडों में थे ,उन्हें सर्दी से छणिक राहत ही मिल सकी थी क्युँकि सर्दी की तीव्रता अधिक हो गई थी।
मेरे पास कोई भी इतना बडा कपडा नही था जो उन्हें ढक सके सिवाये एक टॉवल के जिसे भी मैंने उन्हें दे दिया ताकि उन्हें कुछ आराम मिल सके।बैंग में रखा एक रुमाल और जेब का रुमाल दोनो को निकालकर छोटे-छोटे दो बच्चों के कान बाँध दिये।
मेरे सहयात्री मेरे हर कृत्य को ध्यान से देख तो रहे थे मगर कुछ मदद नही कर रहे थे।हाँ कुछ लोग उस मौके पर भी उन बच्चों की अक्ल और उनके माता पिताओं को कोसने में लगे हुए थे।
मैं वापस आकर अपनी सीट पर बैठ गया ,मेरे चेहरे पर बैचेनी के भाव थे शायद कुछ लोगों को वो पागलपन लग रहा था,मगर सब बडी कौतुकता से हमें घूरने में लगे हुए थे।
ऊपर बाली बर्थ पर लेते हुए महोदय अपने कम्बल को समेटने लगे और जाने की तैयारी करने लगे ........
मैंने उनसे पूंचा आपको कहाँ जाना है ??
वो बोले - हमें यहीं ललितपुर उतरना है
तो क्या आपका ये कम्बल हमें दे सकते हैं ???
उसने मुझे लगभग खा जाने बाली नज़रो से देखा और मुझसे बोले - जनाब साढ़े नौ सौ का लिया था .....
हम भिखारियों के लिए नही खरीइद्ते .......
मुझे तो सुनकर बुरा लगा और क्रोध भी आ गया
मैं अपनी जगह से खड़ा हुआ और आक्रोशित आवाज में बोला- क्या कहा आपने ....जरा फिर से कहना ???
वो हालात को समझ गए और बड़ी शालीनता से मुझसे बोले - यार भाई मैं इन लोगों की बात कर रहा था ..
आपने भले ही बात किसी की भी कही हो लेकिन बुरी मुझे लगी है .......इसलिए आप अपने कम्बल का चाहो तो मूल्य ले सकते हो और मैं अपनी जेब से सात सौ रूपये निकाल कर उनकी तरफ बढ़ा दिया
उन्होंने चुपचाप रूपये रख लिए और कम्बल निकालकर मेरी तरफ बढा दिया|
मैंने उस कम्बल में उन पांचो बच्चों को लपेट दिया और अपन मफलर तीसरे बच्चे को बाँध दिया |
मेरे कानों से तेज हवाए टकरा रहीं थी और वो बच्चे आराम की नींद सो चुके थे ...मगर मेरी आँखों से नींद गायब थी .....
ललितपुर को ट्रेन पार कर गयी और सर्दी अत्यधिक तीव्र होने लगी ......मुझे अपने शरीर के गिरते हुए तापमान का अहसास होने लगा था और जब मुझे लगने लगा की आब मेरी क्षमता से ज्यादा सर्दी है तो मैंने एक आखिरी तरीका आपनाया और अपने बेग से एक बनियान को कानों से बांध लिया .......
झाँसी आउटर पर ट्रेन रुकी कुछ वर्दी धारी दनान चढ़ते हुए चले आये ....और आकर सबसे टिकट मांगने लगे ....
मैं बड़े गौर से उनके टिकट चैक करने के तरीके को देख रहा था ...अगर कोई गंधे कपडे या ख़राब रूप रंग से या अव्व्वस्थित रूप में है तो वो उसका ही टिकट चैक कराने को बोलते और जिनकी छवि रौबदार लगती उनसे कुछ न कहते ...
एक सिपाही दनदनाता हुआ आकर मेरे बाले कम्पार्टमेंट में नीचे सोये हुए लोंगो को गरियाते हुए बन्दूक के बैट के सहारे उठाने लगा ...
वो बिना शिष्टाचार और सदचक का उपयोग करे दनदनाता बडबडा रहा था ,,,.....इसी उठा पाठक में सारे बच्चे जाग गए उसने बच्चों से टिकट मांगे तो उन्होंने टिकट दिखा दिए ..
मगर टिकट जो भी थे वो सब हाफ थे ...(कानूनन सही थे )
लेकिन इस पर पोलिस बाले साहब ने बिना कुछ कहे उनका कम्बल हटा दिया और उनको गरियाने लगे ..और उस बच्चे के कुछ कहने पर उसके गालों पर दो तीन चांटे जड़ दिए ...मैंने सबसे पहले वो कानो की बनियान उतारी .....बालों पे हाँथ फेरा और फिर उससे रूबरू हुए
हैलो ..... क्या बात हैं ???
उसने मुझे घूर कर देखा ,...
मैंने उससे दुबारा पूंचा- प्रोव्लम क्या है तुम्हारी ??....है तो उनके पास टिकट
वो एक दम रौबदार आवाज में मुझसे बोला - तुमसे मतलव ...??
मतलब हमसे हो या न हो चुपचाप काम करो ...और बकलोली मत करो ..वर्ना ....
वर्ना क्या मरेगा हमें .....माधर....... उसका इतना बोलना यानि
पहला झन्नाटेदार सीधा उसके गाल पर और दूसरा मुक्का नाक पर...........इतने में ही जनाब की नाक ने ने रायता निकालकर फैंक दिया था .....
मेरी बात पूरी होने से पहले उसके दोनों साथी भी वहां आ पहुंचे - एक ने ज्युन्ही मेरे कंधे पर हाँथ रखा मैं उसे पकड़कर पूरा घूम गया जिसके चलते उसका हाँथ ईठ गया और वो निशह हो गया और माहौल गहमागहमी का हो गया...देख लेने कानूनी क्रिया करने ..जेल में डालने बाले शव्दों का आदान प्रदान होने लग गया ....उन्होंने बायर्लैस क्र दिया और हमने भी एक काल कर दिया ....माहौल स्शंत होकर भी गर्म था ....
मगर आब कोई भी मेरे पास आने की कोशिश नही कर रहा था .....मैंने अपना विजिटिंग कार्ड उनकी तरफ उछाला और उनसे बोला - ये रहा मेरा पता ...जो करना है कर लेना ....
ट्रेन ने हॉर्न दिया आंगे बढ़ने के लिए गाड़ी स्टेशन पर पहुँचते ही आठ दस बन्दूक धारी डिब्बे में चढ़ गए और आनन फानन से मुझे गिरफ्तार कर लिया गया .. हम ट्रेन से उतारकर ठाणे में पेश किये गए जहाँ मुझ पर गंभीर अपराधिक धाराओं के केश दर्ज कर दिए गए .आऔर हमारी पुलिसिया खातिरदारी करनी शुरू हो गये ..ज्यादा वक़्त नही हुआ दस या पांच मिनट और ...उसी रात को हमारे मित्रों के पहुचने से केश वापस ले लिया गया ...और वो दोनों मेरे सामने पेश किये गए ......सामने बाला शक्श आ चूका था और उसके बाद हमें समझौता करने के लिए बोला जाने लगा मगर हम तैयार न थे ...हमारा मकसद था की भले ही मेरे कृत्य के लिए मुझे सजा दी जाए लेकिन उन भ्रष्टों और गलत लोगों को न छोड़ा जाए.... उन्होंने आश्वाशन के साथ कार्यवाही का भरोसा दिलाकर छोड़ दिया .....मैंने भी सोचा एक गंभीर अपराधिक धारा से तो बच्च\ गए हैं कमसे कम एक सुधरने का मौका जरुर दुसरे को देना चाहिए ...मै उनके पास' गया और उनसे सिर्फ चेतावनी देक्र छोड़ देने की अपील की ........
मेरे इस व्यवहार से वो लोग कुछ खुश हो सके जिन्हें लगा था की अब उन्हे नि;ल्म्बन झेलना पड़ेगा |
मामला शांत हो गया और हम वापस अपने गंतव्य की तरफ बढ़ चले ....
किसी ने सच ही कहा है कुछ पुलिस बालों के ये फितरत ही होती है की वो जबतक ईनाम न पायें तब तक मानते ही नही हैं .......
जैसे तैसे करके हम कानपुर तो पहुँच गए और उसके
कुछ दिनों बाद हमारी एक टीम फरबरी में उनके यहाँ गयी और उन पंचों बच्चो को मना कर उनके पिता के साथ कानपुर ले आये ...जहाँ वो पाँचों बच्चे हमारे साक्षरता मिशन २०१४ के तहत शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और उनके रहने खाने की व्यवस्था संस्था द्वारा प्रदान की जा रही है |उन पोलिस बालों की पोस्तिंगे वहां से हट चुकी हौं ......मगर मैंने उन सभी पोलिस बालों पर केश दर्ज कराया था जिन्होंने मेरे साथ थाने में अभद्र व्यवहार किया था ...जिसमें कुछ को निलम्बन झेलना पड गया था .......वहुत कम लोग हैं जो उस घटना का सच जानते हैं ....
उस दिन अक्रोश वश हमने जो किया वो गलत था..मगर सच के साथ थे इस बात की ख़ुशी थी .... आज कुछ बच्चों के बचपन सवंर रहे हैं...उनमे से कोई न कोई तो आंगे जाकर अपना नाम जग में रोशन करेगा ....ये हमें विशवास है ....मगर ये रिश्वत बाजी और अशभ्य आचरण खास तौर पर पुलिसिया व्यवहार में सुधार होना चाहिए |
मुझे पोलिस की मार खानी पड़ी क्यूंकि मैं कोई हीरो नही था ...
जी.आर.दीक्षित
दाऊ जी
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