रविवार, 28 दिसंबर 2014

सुबह की सुनहरी धूप आसमान से उतरते हुए पहाडों के रास्ते अपनी मस्ताती चालों से चलकर खिड़की से होते हुए मेरे चेहरे पर पडने लगी।इस तरह एक हसीन स्वप्न का अंत हो गया और मैं फिर से सोकर जाग चुका था आजकल तो वैसे भी वहुत कम नींद आती है लेकिन जितनी भी आती है दिल से टकराने बाले अहसासों को जन्म देकर जाती है।वो अपने छणिक सुख में ही हमें वो सुन्दर स्वप्न दे जाती है जिससे पूरा दिन एक रहमस्यमयी मुस्कान के साथ व्यतीत हो जाताहै।मैंने खिड़की का ग्लास हटाया तो सुनहरी धूप एकाएक आँखों से टकराकर उनको चौधिया गईं। हल्की सर्द लिए बलखाती मस्ताती हवायें कानो को मधुरिम अहसास कराने में व्यस्त थी।हवा के नम झौंके जब कानों से टकराते तो लगता जैसे प्रकृति की सबसे योग्य संतानों में से एक वृझों के गाये हुए गीत हवायें बादलों के बीच से बचाकर ,ट्रेन की आवाज के सुर में सुर मिलाकर मेरे कानो तक पहुँचा रही हैं।मस्ताती पवनों के साथ झूमते अनमने अधजगे से ,तेजी से पीछे की तरफ भागते ये पौधे लगता था जैसे सुप्रभात बोल रहे हो। इतना हसीन मौषम हो तो भला किस बदनसीब को अपनी प्रियतमा की याद न आये और अगर प्रियतमा साथ तो भला कैसे उसपे प्रेम न आयें। लेकिन अगर किसी की प्रेमिका साथ नही है तब तो वो विरह वेदना में ही डूब जाता है और इस वक्त तो कविमन अपने आप जाग्रत हो सुन्दर मादक,शब्दों के मायाजाल बनाकर एक सुन्दर रचना लिख देता है।उसकी लेखनी से निकलने बाला हर एक शब्द न केवल उसके नोभावों को पूरी तल्लीनता से कागज पर उकेरता है बल्कि उनके साथ में सजीवित भावनाओं का भी संचार कर देता हैं।ये भावनायें इतनी तीव्रता से समाईं होती हैं कि जब पाठक उस रचना को पढता है तो वह भी उन भावनाओं को मेहसूस कर अपने स्वप्नो की नायिका को याद कर उठता हैं। मैं कोई कवि नही हूँ और न ही कोई लेखक हूँ लेकिन मेरा मन मचल रहा है कुछ लिखने को कुछ शब्द कागज पर उकेरेने को,मुझे कवित्त का ज्ञान नी है,रसोंम के बारे में सिर्फ पढा हूँ,छन्द,तुक और लय से भी अज्ञान ङूँ मगर लिखने को बैचेन हूँ।चेहरे से अभी आँखों का कीचर तक नही निकला है ,कुछ बूँदे पानी भी नही मिला है मगर फिर भी हम खुद को तरोताजा मेहसूस कर रहे हैं। हमारे आदर्श ,हमारे बुजुर्ग हमें हमेशा प्रात: कालीन टहलने के बारे में कहा करते थे हम भी बचपन तक तो ध्यान से सुनते रहे मगर ज्योंहि जवानी की रेख शरीर पर चढने लगी हमें उनकी बताईं बातों को याद रखकर भी कभी अपना न सके।दरअसल उसमें दोष उनका नही है।दोष हमारा भी नही ब्लिक हमारी शिक्षा का है जिसने हमें शिक्षित तो किया मगर आधारभूतिक ज्ञान नही दिया हमें वो चन्द अक्षर सीखने को मिले जिसमें हमने पौधे और वृक्षो को साईंटिफिक रीजन से सिर्फ ऑक्सीजन देने बाला एंव हमारी रोजमर्रा के जरुरत के सामान जैसे लकडी और कागज का पूर्तीकारक माना है ।हम मशीनी युग के इतने आदि हो गये कि खुद को मशीन समझने की भूल करने लगे,पता नही चला कि हमारे अन्दर ये लौहे और टीन के डब्बे कब आकर बस गये,कब हमारी रगों में दौडने बाला लहू किसी गाडी सा आयल हो गया और न जाने कब ये रक्त धमनियाँ सिर्फ संचार केन्द्र बनकर रह गई।दिल सिर्फ जीवन है इस बात का सूचक रह गया है क्युँकि मशीनों में भावनायें नही होतीं इसलिए हम भी भावना विहीन होकर वक्षों के अपनत्व को भूला बैठे उनके त्याग और बलिदान को हमने विवश्ता समझ लिया है।हमारी किताबें हमें बताती हैं कि ये जो हमारा शरीर है उसका हर अंग मानव जीवन को जीने में सहयोग करता है मगर ये नही बताती कि उसका सामाजिक तौर पर क्या अस्तित्व है।कैसे वह समाजोपियोगी है? हम कितने खुश थे जब वैदिक ज्ञान हमारी नसों में दौड़ता था और हम हर वक्त एक अहसास भरी जिन्दगी जीते थे और एक ये मैकाले बाला ज्ञान है जिसने अहसासों को मारकर मशीन बना दिया।आज हमें पता है कि हमारी रंगो मे क्या बहता है वो कैसे बनता है ?? उसका काम क्या है ?? मगर सब वो पता है जो विज्ञानिक तरीके बाला उसका असली महत्व तो हमने कभी समझने की ोशिश ही नही कि क्युँकि हम भी कभी इंसान बनना पसंद नही कर पायें।हा अगर कुछ नया सीखा तो ये कि इस लहू में कितना अंतर है ये रक्त मुसलमान का है और ये रक्त फलाने का और ये रक्त ढिकाने का । कल तलक जब हम मूर्तियाँ पूजते थे,ध्यान करते थे तो लोग हमें अंधविश्वासी कहा करते थे मगर हम आज न पूज कर भले ही सभ्य कहलालें मगर हकीकत तो यही है कि चाहे या अनचाहे तौर पर हमें उन पर विश्वास करना ही पडता है तो फिर पूजकर जीवन भर की शान्ति क्युँ न प्राप्त करली जाये।हमारी शिक्षा कहती है कि इन्हें मत पूजो ,मूर्ति पूजा मत करो. ये गलत है ये असभ्य लोगों की निशानी है सभ्य बनो और मत पूजो लेकिन वो शिक्षा हमें कभी ये नही बताती की हमारे शरीर के लिए ध्यान योगा क्युँ जरुरी है ।उस मूर्ति पूजा का असली रहस्य क्या है?? उससे मानव शरीर को क्या लाभ मिलता है ??? नही ये तो नही बता सकता क्युँकि हमारी आज की शिक्षा प्रणाली हमें सिर्फ और सिर्फ उन हरामखोरों का मानसिक गुलाम बना रहा है जिन्होने 400 वर्षो तक हमें लूटा। प्रात: काल का समय हो और मदमस्त पवन के झौंके वाह जी वाह कौन कम्बख्त परेशान या तनाव में रह सकता है यहाँ। मेरा आखों में झूमते ,लरजते मस्ताते वनों का वो दृश्य आ गया वो मैंने कभी इसी राह पर सफर करते वक्त अनंत नीले आसमान तक फैले हुए देखे थे आज तो उनके अवशेय मात्र थे ये वो वक्त था जब हमारी उम्र बोसा पाने की थी और हमें प्राथमिक कक्षाओं में राम और कृष्ण की कथाओं के साथ दादी नानी की कहाँनियों में वृझो औप फूलों को बोलता बताया जाता था।जब तक हम बचपने में जिए तब तक यही समझते थे कि ये चिडिंयाँ और ये वृक्ष भी हमारी तरह ही आपस में बात करते हैं बात तो सच थी मगर हा ये नही जानते थे कि उनकी अपनी एक निजी भाषा होती है ।जैसे कि हमारे शरीर के अंगो की होती । शेष् जल्द -: जी.आर.दीक्षित

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अंतर्द्वंद

मेरी सोची हुई हर एक सम्भावना झूटी हो गई, उस पल मन में कई सारी बातें आई। पहली बात, जो मेरे मन में आई, मैंने उसे जाने दिया। शायद उसी वक्त मु...