बुधवार, 7 जनवरी 2015

एक बार तो रुक जाते आवाज़ मेरी सुन कर,




एक बार तो रुक जाते आवाज़ मेरी सुन कर,
कब से था राहों में कुछ ख्वाबों को बुन कर.

क्या गुनाह था मेरा जो ये तमाशा यूं हुआ,
काफिले रुकने लगे थे आहें मेरी सुन कर.

क्यों मैं चीखा न सबब कर मालूम कभी तू,
बेतकल्लुफ सा चला आवाज़ मेरी सुन कर.

हवाएं रुकने लगीं, थीं गुमसुम सी फिजायें,
रास्ते सिमट गए थे दर्दो-आहें मेरी सुन कर।

सब ने देखी मेरी बैचैनी-ओ-कसक लेकिन,
न तेरे दिल में थी हरकत नाले मेरे सुन कर.

फूल रोने लगे शबनम क़े चंद कतरे लेकर,
तेरी पेशानी थी बेरंग आवाज मेरी सुनकर.

तर-व्-तर गर्द-ओ-पसीने से मुसाफिर जैसा,
चला जाता था मगर वो सदायें मेरी सुन कर.

कैसा सन्नाटा गजब का हुआ राहों में मेरी,
सांस रोके था हर जर्रा आवाज़ मेरी सुनकर।

क्यों तू मगरूर खुदी से 'अली' बेसुध मुझसे,
न रुका एक भी पल, आवाज़ मेरी सुन कर.

बेतकल्लुफ = परवाह किये बिना, नाले = दर्द भरी चीखें, सदायें = आवाजें,
शबनम = ओंस, पेशानी = चेहरा, मगरूर = घमण्डी

अंतर्द्वंद

मेरी सोची हुई हर एक सम्भावना झूटी हो गई, उस पल मन में कई सारी बातें आई। पहली बात, जो मेरे मन में आई, मैंने उसे जाने दिया। शायद उसी वक्त मु...