दिया जलाके दरवाजे पर
मैं रोज मानता दीवाली
कभी तो आएगी वो
आस न जाएगी खाली
रोज शाम को बैठ मुंडेरे पे
आती जाती सुर्ख हवाओं से
पूंछा करता हूँ उनसे
कहीं मिली थी क्या वो दिल
बाली ??
कितने सावन गुजर गए
कितना पानी बरस गया
न जाने कितनी बार लवों से
नाम तेरा था फिसल गया
खालिपन रहा हर तरफ
दिल उसको है खोज रहा
कितना अच्छा वो मौषम था
बेकार लगी वो हरियाली
पतझड़ में हर गिरते पत्ते को
मैंने समेंट लिया अपने आंगन
में
शायद उनमे तेरा कोई ख़त हो
जो लेकर आई हो ये हवा
मतवाली
नही याद मुझे मैं कब सोया
था
मगर तेरा स्वप्न मुझे कल ही
आया था
तुम मुझसे कुछ बोल रही थी
लिए हांथो में चाय की
प्याली
बरबस नैना बरस रहे हैं
हम मिलन को तरस रहे हैं
खोज रहा हूँ मैं कब से
कहाँ गुम हो गयी मेरी
दिलबाली
दिया जलाके दरवाजे पर
मैं रोज मानता दीवाली
कभी तो आएगी वो
आस न जाएगी खाली
जी आर दीक्षित
(दाऊ जी )
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