शनिवार, 31 अक्तूबर 2015

मजबूर कर दिया था इस कदर रोने पे मुझे।

बहुत रुसबा किया लोगों ने न होने पे मुझे,
मजबूर कर दिया था इस कदर रोने पे मुझे।

चंद-लम्हाते-मुश्किलात ने वो दिया सबक,
नहीं मलाल दोस्तों के पाने-ओ-खोने पे मुझे।

परख कम वक्त में हो गई अपने पराये की,
उलझने नहीं सतातीं रातों को सोने पे मुझे।

सभी अरमान मेरे चूर और वहम भी काफूर,
गुमां इतना कि करेंगे याद न होने पे मुझे।

मगर जो आलमे-मसरूफियत यारों का रहा,
कहाँ फुर्सत मिली होगी उन्हें सोचने पे मुझे।

मेरी खुद की रही होगी खुरापात-ए-बजूद ये,
करता मजबूर काफिले यादों के ढ़ोने पे मुझे।

दिल-जिगर की खता नहीं हूँ जज्बाती बहुत,
सितम ऐसा किया दागे-दामन धोने पे मुझे।

दोस्ती नामे-वफ़ा है रहेगा बेशक मगर 'अली'
मैं खरा न था फिर भी लगे आजमाने पे मुझे।

रुसबा = बदनाम, चंद-लम्हाते-मुश्किलात = कठिन समय के कुछ पल, काफूर = भृम मिटना, आलमे-मसरूफियत = व्यस्तता का समय, खुरापात-ए-बजूद = स्वयं की गलत सोच,

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