इंडिया डिजिटल हो रहा है,
मेरा भारत कहीं खो रहा है.
हर शख्स घूमता नंगा यहां,
कौन सभ्यता को रो रहा है.
जो सच्चा है गुमनाम हुआ,
झूंठे का खूब शोर हो रहा है.
खोता जा रहा इंसानी ज़मीर,
भेड़िया करुणा में रो रहा है.
इशारे ही जिनके बजह बने,
पूछते हैं वही क्या हो रहा है.
गरीब आदमी ऐसे मुल्क में,
मुझको ये अचम्भा हो रहा है.
गत्लो-गारत है मारामारी है,
आदमी अब आपा खो रहा है.
गर्क करने मुल्क सियासतदां,
बीज बरबादी वाले बो रहा है.
हुआ अफ़सोस मगर देखा है,
'अली' तन्हा नहीं जो रो रहा है.
शख्स = व्यक्ति, गुमनाम = लुप्त, ज़मीर = चरित्र/नैतिकता, गत्लो-गारत = खून -खराबा, सियासतदां = राजनीतिज्ञ, तन्हा = अकेला
मेरा भारत कहीं खो रहा है.
हर शख्स घूमता नंगा यहां,
कौन सभ्यता को रो रहा है.
जो सच्चा है गुमनाम हुआ,
झूंठे का खूब शोर हो रहा है.
खोता जा रहा इंसानी ज़मीर,
भेड़िया करुणा में रो रहा है.
इशारे ही जिनके बजह बने,
पूछते हैं वही क्या हो रहा है.
गरीब आदमी ऐसे मुल्क में,
मुझको ये अचम्भा हो रहा है.
गत्लो-गारत है मारामारी है,
आदमी अब आपा खो रहा है.
गर्क करने मुल्क सियासतदां,
बीज बरबादी वाले बो रहा है.
हुआ अफ़सोस मगर देखा है,
'अली' तन्हा नहीं जो रो रहा है.
शख्स = व्यक्ति, गुमनाम = लुप्त, ज़मीर = चरित्र/नैतिकता, गत्लो-गारत = खून -खराबा, सियासतदां = राजनीतिज्ञ, तन्हा = अकेला
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