बुधवार, 11 नवंबर 2015

तसब्बुर में मेरे जो मूरत थी अब तक,

आज क्या कोई नाजुक कली आ रही है,
जो साँसों से दिल में चली आ रही है.

नज़र भर के देखो नज़ारे हसीं हैं,
निगाहों में क्यों खलबली आ रही है.

ये कैसा है मंजर हकीकत में देखो,
वो तस्ब्बीर उनकी चली आ रही है.

महकता है दामन ये क्यों खुशबुओं से,
क्या फिर से कोई मनचली आ रही हैं

बहुत अक्श गिरते-उभरते हैं दिल में,
वो साँसों में जैसे घुली जा रही है.

नज़र क्यों अचानक ये झुकने लगी है,
क्या मेहबूब की फ़ी गली आ रही है.

ये कैसा धुंधलका हसीं शाम का है,
जो होने को रोशन चली आ रही है।

तसब्बुर में मेरे जो मूरत थी अब तक,
वही सामने से चली आ रही है.

है आतिश मुहब्बत की पुरनूर चाहत,
कि नफ़रत दिलों की जली जा रही है.

हैं मदहोश गुंचे ये सारे चमन के,
जैसे वो कमसिन कली आ रही है.

मुबारक 'अली' तुझको हो शामे-उल्फत,
सदा गैब से क्या भली आ रही है.

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