जब दिन भर की थकान लिए जब शाम को दिन भर की दकियानूसी कहानियों के बीच फाईलों के पारे चढाती गर्मी को सिर पे लाद थके हारे से जब निढाल होकर लो बैटरी के साथ घर लौटते हैं तो बस मन करता है अब कोई कुछ भी काम के लिए न कहे, बस सीधा जाकर बाथटब में लेट जायेगें मगर ज्योंहि हम परिसरन के अन्दर दाखिल होते हैं तो आसरा से आने बाली आवाजें हमें अपनी तरफ आकर्षित कर लेती हैं।
रोज हमारे आने के समय नजदीक होते ही न जाने कितनी आँखें परिसर के दरबाजे की तरफ को लग जाती हैं।बार बार कौतुकता से घड़ी की सुईयों की तरफ निहारा जाता है और जब परिसर का दरबाजा खुलता है तो एक अजीब से शौर उन नन्हों के मुँह से निकल जाता हैं।फिर कौई भी बन्दिश उन्हे रोक नही सकती है। न बाँच मैंन और न उनकी देखभाल करने बाला कोई शख्स । रुकजाते हैं तो सिर्फ वो जो जिनकी कक्षायें चल रही होती हैं।भवन के अन्दर जाते ही कई हाथ आगोश में लेने को दौड़ पड़ते है ,कोई ईधर से ,कोई ऊधर से कोई पीछे से,वहीं पर घुटनों पर बैठ सबको एक साथ अपनी बाहों में लेने का एक नाकामयाब सा प्रयास शुरु हो जाता हैं। उस वक्त न प्रतिष्ठा /गरिमा न कपडे खराब होने का डर होता है। शायद उन नन्हें से बच्चों के बीच उनका कौई अपना ही होता है।वो भी कोई बच्चा ही है जो अपना अक्श उनमें खोजता रहता है।
फिर शुरु होता है असली ऊधम शिकायतों का दौर किसी विस्तर के बीचौं बीच दीवाल के सहारे बैठ जाता ते ही , चारौं तरफ से घेर लिया जाता हूँ कुछ छाती से लिपट जाते हैं तो कुछ आसपास के विस्तरों को जोड के अपने घुटनो के बल या पंजो के बल पर खड़े होकर कौतुकता से निहारा करते हैं।आज आपने खाना खाया/खाने में क्या था??, खाना कैसा था?? किस किस ने नहाया ??? किस किस ने नाखून काटे ??
अरे तुमहारे बाल क्युँ बिखरे हुए हैं,कंघी कीजिए आप??,आपकी शर्ट का बटन खुला है,आपकी चैन खुली हैं बगैरह बगैरह ???
तभी कौई बोलेगा आज उसकी उससे लडाई हुई ,उसने उसके साथ ये किया।किसी को को मास्टर डाँट देता है तो कोई पेट दर्द का बहाना कर लेता हैं।समझाईश के दौर के बीच ही मस्तियाँ होती रहती हैं रोने जैसी सूरत लिए वो नन्हे प्यारे से मुस्कुरा जाते हैं कभी हंस हंस कर लोट पोट हो जाते हैं।
मालूम ही नही पडता है कब समय निकल जाता है और बच्चों के खाने का समय आ जाता है ।जब खाने की बैल बजती है तो सबको जबरन भेजना पडता था कभी तो साथ खाना खाऊँगा का वादा भी करना पडता हैं।अब तो इस पर भी जंग हो जाती है क्युँकि हर कोई चाहता है मैं उसके साथ खाना खाऊँ।
जितनी तेज पारे और चढे हुए दिमाग के साथ परिसर में प्रवेश किया था उतने ही ठण्डें दिमाग के साथ अपने केबिन में चला जाता हूँ ।बच्चों के साथ उनकी प्लेट से प्यार से दिया गया एक एक निवाला ही मेरा भोजन हो जाता है और उसके बाद मुझे जरुरत नही रहती है किसी भी भोज्य पदार्थ की ।
अपना काम खत्म करके किसी भी विस्तर उन्ही नन्हों के बीच जाकर लेट जाना ।
नींद भले ही न आती हो मगर ख्याब जरुर आ ही जाते हैं वो प्यारे से बच्चे जब मुझसे चिपटते हैं तो लगता है मेरी खुशियाँ वापस लौट आईं हैं।शायद मेरा बचपना वापस लौट आया है।
सुबह जब पाँच बजे की बैल के साथ जब बच्चे जागते हैं तो देखते हैंअपने बीच हमको पाकर खुशी से फूले नही समाते हैं ।
फिर शौर हो उठता है ,उसी शौर में नींद खुलना लाजिमी है मगर वो शौर भी कलरव की तरह प्रतीत होता है।जैसे च्ट्टान से टकराकर पानी से उत्पन्न होने बाले कल कल कल की ध्वनि वैसे ही ये ध्वनि भी मनको वहुत भाँति हैं।
जब तक सभी फ्रैस होकर व्यायाम करके स्नान करके नास्ते की टेबिल तक पहुँचते हैं तब हम परिसर का मुआयना करते हुए अपनी रोज मर्रा की जिन्दगी बाले कार्यों को खत्म करेक बापस उनके साथ नास्ते वक्त पहुँच चुके होते हैं।
रोज हमारे आने के समय नजदीक होते ही न जाने कितनी आँखें परिसर के दरबाजे की तरफ को लग जाती हैं।बार बार कौतुकता से घड़ी की सुईयों की तरफ निहारा जाता है और जब परिसर का दरबाजा खुलता है तो एक अजीब से शौर उन नन्हों के मुँह से निकल जाता हैं।फिर कौई भी बन्दिश उन्हे रोक नही सकती है। न बाँच मैंन और न उनकी देखभाल करने बाला कोई शख्स । रुकजाते हैं तो सिर्फ वो जो जिनकी कक्षायें चल रही होती हैं।भवन के अन्दर जाते ही कई हाथ आगोश में लेने को दौड़ पड़ते है ,कोई ईधर से ,कोई ऊधर से कोई पीछे से,वहीं पर घुटनों पर बैठ सबको एक साथ अपनी बाहों में लेने का एक नाकामयाब सा प्रयास शुरु हो जाता हैं। उस वक्त न प्रतिष्ठा /गरिमा न कपडे खराब होने का डर होता है। शायद उन नन्हें से बच्चों के बीच उनका कौई अपना ही होता है।वो भी कोई बच्चा ही है जो अपना अक्श उनमें खोजता रहता है।
फिर शुरु होता है असली ऊधम शिकायतों का दौर किसी विस्तर के बीचौं बीच दीवाल के सहारे बैठ जाता ते ही , चारौं तरफ से घेर लिया जाता हूँ कुछ छाती से लिपट जाते हैं तो कुछ आसपास के विस्तरों को जोड के अपने घुटनो के बल या पंजो के बल पर खड़े होकर कौतुकता से निहारा करते हैं।आज आपने खाना खाया/खाने में क्या था??, खाना कैसा था?? किस किस ने नहाया ??? किस किस ने नाखून काटे ??
अरे तुमहारे बाल क्युँ बिखरे हुए हैं,कंघी कीजिए आप??,आपकी शर्ट का बटन खुला है,आपकी चैन खुली हैं बगैरह बगैरह ???
तभी कौई बोलेगा आज उसकी उससे लडाई हुई ,उसने उसके साथ ये किया।किसी को को मास्टर डाँट देता है तो कोई पेट दर्द का बहाना कर लेता हैं।समझाईश के दौर के बीच ही मस्तियाँ होती रहती हैं रोने जैसी सूरत लिए वो नन्हे प्यारे से मुस्कुरा जाते हैं कभी हंस हंस कर लोट पोट हो जाते हैं।
मालूम ही नही पडता है कब समय निकल जाता है और बच्चों के खाने का समय आ जाता है ।जब खाने की बैल बजती है तो सबको जबरन भेजना पडता था कभी तो साथ खाना खाऊँगा का वादा भी करना पडता हैं।अब तो इस पर भी जंग हो जाती है क्युँकि हर कोई चाहता है मैं उसके साथ खाना खाऊँ।
जितनी तेज पारे और चढे हुए दिमाग के साथ परिसर में प्रवेश किया था उतने ही ठण्डें दिमाग के साथ अपने केबिन में चला जाता हूँ ।बच्चों के साथ उनकी प्लेट से प्यार से दिया गया एक एक निवाला ही मेरा भोजन हो जाता है और उसके बाद मुझे जरुरत नही रहती है किसी भी भोज्य पदार्थ की ।
अपना काम खत्म करके किसी भी विस्तर उन्ही नन्हों के बीच जाकर लेट जाना ।
नींद भले ही न आती हो मगर ख्याब जरुर आ ही जाते हैं वो प्यारे से बच्चे जब मुझसे चिपटते हैं तो लगता है मेरी खुशियाँ वापस लौट आईं हैं।शायद मेरा बचपना वापस लौट आया है।
सुबह जब पाँच बजे की बैल के साथ जब बच्चे जागते हैं तो देखते हैंअपने बीच हमको पाकर खुशी से फूले नही समाते हैं ।
फिर शौर हो उठता है ,उसी शौर में नींद खुलना लाजिमी है मगर वो शौर भी कलरव की तरह प्रतीत होता है।जैसे च्ट्टान से टकराकर पानी से उत्पन्न होने बाले कल कल कल की ध्वनि वैसे ही ये ध्वनि भी मनको वहुत भाँति हैं।
जब तक सभी फ्रैस होकर व्यायाम करके स्नान करके नास्ते की टेबिल तक पहुँचते हैं तब हम परिसर का मुआयना करते हुए अपनी रोज मर्रा की जिन्दगी बाले कार्यों को खत्म करेक बापस उनके साथ नास्ते वक्त पहुँच चुके होते हैं।
जहाँ से वो स्कूल और हम अपने समय पर द्फ्तर निकल जाते हैं।
ये परिसर मेरा आसरा है जहाँ मेरा बीता हुआ ''बचपन'' वापस लौटकर हमारे बीच रहने लगा हैं।
गालौं पे किस्सियाँ,बाँलों में ऊँगलियाँ,नन्ही नन्ही सी शैतानियाँ,कुछ अठखेलियाँ,परियों की कहानियाँ,जीवन की रंगीनियाँ, कैनवास पर रंगौलियाँ,प्यारी सी खिलकौटिंया।
मैं एक नही वापस जी रहा हूँ पूरी 141 बचपन बाली जिन्दगानियाँ।
मैं एक नही वापस जी रहा हूँ पूरी 141 बचपन बाली जिन्दगानियाँ।
दाऊ जी
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