लव-लाइन
सड़क किनारे खड़ा किसी वाहन के आने का इंतजार था कि ठीक तभी एक लाल रंग की कार की चमक से मन में एक और उम्मीद जगी।
पिछले आधे घण्टे में पाँच गाड़ियाँ गुजरी लेकिन किसी ने भी लिफ्ट के काबिल नहीं समझा।
शायद बढ़ी दाढ़ी और सिलवटी कपड़े इसकी एक वजह हो सकते थे।
स्मार्ट और शरीफ दिखने वाला, सड़क छाप, आवारा और लिफ्ट का मारा दिख रहा था।
पास आती लाल कार की चमक मेरे हौसलों को पस्त किये दे रही थी।
कबाड़ी वाहनों ने लिफ्ट के काबिल न समझा फिर भला ये चमचमाती हुई कार मुझ पर क्यों रहम करती।
पर कोशिश करने में हर्ज क्या था?
मैंने बड़ी सभ्यता से लिफ्ट का इशारा किया।
उम्मीद के विपरीत वो कार रूकी।
थोड़ा आगे जाकर ही सही।
हैरानी तब हुई जब बैक होकर मेरे पास तक लौटी।
मैं हतप्रभ था कि कार के काले शीशे नीचे सरके।
वियावान, उजाड़ रेगिस्तान में, चमचमाती कार के भीतर, ताजमहल जैसी लकदक करती हसीना।
एक पल को तो अपनी किस्मत पर शक हुआ।
लगा ख्वाहिशों ने आकार ले लिया हो।
यकीन तब आया जब सुरीली आवाज कानों से टकराई-
"इस विराने में क्या पिकनिक का इरादा था?..."
क्या बोलूं?
धड़धड़ाती धड़कनों को ज़ज़्ब करके मुँह खोला-
"इरादा काम का था....पिकनिक खांमाखा मन गई..."
गले में टंगे कैमरे पर उसकी निगाह थमकी-"...कुछ फोटो और आँकड़े लेने आया था।"
उसने ऐसे देखा जैसे मेरे झाड़-झंखाड़ चेहरे में स्मार्टनेस के अवशेषों को तलाश करने की कोशिश कर रही हो। मानों दाढ़ी-वाढ़ी बनाने के बाद मैं ठीक-ठाक दिखने लायक लग सकता हूँ कि नहीं।
"ये जो आप अभी दिख रहें हैं....हमेशा ऐसे ही दिखते हैं या...थोड़ी बहुत गुंजाइश है।"
"एकाध ब्लेड घिसने के बाद बंदा आप जितना तो नहीं लेकिन.....कुछ तो दिख ही सकता है।"
"लगता तो नहीं...पर मान लिया....तो आप पेशेवर फोटोग्राफर हैं।"
"वो तो एक हिस्सा है....असल में हूँ साइंटिस्ट"
इस बार उसने कुछ ज्यादा गौर से देखा-
"कुछ कमी-बेशी के साथ जैसा सुना था तकरीबन वैसा ही पाया....साइंटिस्टों का सारा हौव्वा हवा हो गया......खैर, आपको जाना कहाँ हैं?"
पता नहीं वो किस डगर पर है, पूछ लेना मुझे उचित लगा-
"आप किधर को जा रहीं हैं?"
"उदयपुर....वहाँ तक आप चल सकते हैं......उधर ही जाना हो तो?"
भूखा क्या चाहे?
दो सूखी रोटी,
मिले कबाब-विरयानी ,
तो क्यों कर मान करे।
पर तकल्लुफ भी एक चीज थी-
"जाना तो उधर ही है पर......अगर तकलीफ न हो तो"
"जैसे आप दिख रहें हैं अगर वैसे होते तो शायद हो सकती थी लेकिन अफवाहें आप लोगों की शराफत की ही उड़ती हैं.....उम्मीद करती हूँ कि ये सच ही होगा।"
भला पूरी साइंटिस्ट विरादरी की जिम्मेदारी मैं क्यों लेता।
"दूसरों का तो पता नहीं पर अपनी गारण्टी मैं ले सकता हूँ। वैसे भी उम्मीद मत छोड़िये, दुनिया उसी पर कायम है....शुक्रिया! धन्यवाद! थैंक्स!...सब एक साथ"
कुछ ही पलों में मै उस कार के भीतर था और विराना रेगिस्तान तेजी से पीछे छूटने लगा था।
"तो....इस वियावान में आप अकेले कैसे?"
"मेरी टीम आज ही जयपुर पहुची है....दो दिन बाद हम वापस लौटेंगे....पूरी तैयारी के साथ.."
"रेत और कटीली झाड़ियों के अलावा यहाँ आपको भला किस चीज में दिलचस्पी हो सकती है?"
"ऊपर से ज्यादा मुझे नीचे में दिलचस्पी है..."
उस वक्त मेरी नजर अनायास ही उसके अर्धपारदर्शी साड़ी से बाहर झाँक रहे उरोजों पर थी।
चाहता तो नहीं था ऐसा हो लेकिन कमबख्त ये काम ही ऐसा है कि जल्दी औरतजात देखने को ही नसीब नहीं होती थी।
और वो भी इतनी सजी-धजी और खूबसूरत।
आज पहली बार ऐसा इत्तेफाक हुआ था।
ऊपर से सामान्य मैं भले ही था लेकिन शरीर की कुछ खास कोशिकाओं में इजाफा शुरू हो चुका था।
पर मेरे मुँह से जो निकला और जहाँ मैं देख रहा था, उन दोनों में कुछ तालमेल भी हो सकता है, ऐसा इल्म भी न हुआ।
"हैल्लो..."
उसने जल्दी से साड़ी के पल्लु को ढंग से व्यवस्थित किया।
-"...आप अपने शरीफ होने की गारण्टी दे चुके हैं..."
मैं थोड़ा हकबकाया।
झेंपना लाजिमी था।
"सॉरी.....मेरे कहने का मतलब था कि जमीन के नीचे हमें संसाधनों कि तलाश है...."
"जैसे की पानी...."
"हाँ.....लेकिन एक दूसरी कीमती चीज भी है.....जिसके बिना आपकी गाड़ी नहीं चल सकती..."
"ओह...यानि पेट्रोल..."
"जी....हमें कुछ ऐसे सुराग मिले हैं कि यहाँ पर कई हजार फिट नीचे करोड़ों लीटर कच्चा पेट्रोलियम मौजूद है.....जिसे हम ड्रील करके बाहर निकाल सकते हैं..."
"साउन्ड इंटरेस्टिंग......काम तो आपका बहुत रोमांचक है......पर लड़कियों के मामले में आप काफी लूज लग रहे हैं.....क्या सारे साइंटिस्ट ऐसे ही होते हैं..."
अब भला मैं क्या जवाब देता।
पर मैं अपनी हरकतों को स्पष्ट भी करना चाहता था।
"वैसे हमारी विरादरी को औरतों में कोई खास दिलचस्पी नहीं होती...."
"वो तो मैं देख चुकी हूँ..."
उसने फिर साड़ी के पल्लु को व्यवस्थित किया।
स्पष्ट था कि वो मुझ पर कटाक्ष कर रही थी।
"ऐसा इसलिये होता है कि हम जिस माहौल में काम करते हैं वहाँ औरतें नहीं होती। अपने काम में हम इतना बेसुध होते हैं कि महीनों तक आप जैसी कोई खूबसूरत औरत देखना नसीब नहीं होती......"
"आप मेरी तारीफ कर रहें हैं या अपनी मजबूरी का रोना रो रहे हैं....."
"दोनों ही....पर मेरी हरकतों का बुरा मत मानियेगा। ये हमारी आदतों में शुमार है। जैसे ही कोई ध्यान खींचने लायक आकर्षक चीज नजर आती है हम अनायास ही उसका मुआयना करने लगतें हैं...."
"आपकी बातें अश्लील तो नहीं लग रही पर......मुझे ऐसा लगता है जैसे आप मुझसे फ्लर्ट कर रहे हैं...."
"मैं तो बस अपने नजरों की गुस्ताखी की सफाई दे रहा हूँ...."
"उस लिहाज से तो न जाने इस वक्त आपके मन में क्या-क्या चल रहा होगा?...."
वो औरत वाकई बहुत बिंदास थी।
"दिमाग में चलने और वाकई होने में बहुत फर्क है....आप बेफिक्र रहिये..."
"क्या पता आप पर कब शैतान हावी हो जाय और???...."
"तब तो आपको मुझे यहीं उतार देना चाहिये..."
तब वो पहली बार खुल कर हंसी।
"आप लोग सच में हॉफ ईडियट होते हैं...."
"मतलब..."
"मैं आपको जानबूझ कर उकसा रही थी...."
"किसलिये?...."
"ताकि आप कुछ गलत करें और मैं आपको यहीं पर उतर दूं..."
"ओह....उस लिहाज से तो मैंने आपको निराश किया...."
"खैर नज़रों की गुस्ताखी भी कम नहीं थी....मैं उस बात पर भी आपको ऊतार सकती हूँ लेकिन इतना तो चलता है...."
इतना बोलकर वो थोड़ा राजदाराना स्वर में चेहरे को मेरी तरफ झुकाकर बोली-
"....सच कहूं तो इतने भर की हसरत तो होती ही है.....नहीं तो सजना सवरना किस काम का...."
"यानि कहीं जो पढ़ा था वो सच ही निकला...."
"ऐसा क्या पढ़ रखा था जो आज जाके प्रमाण मिला...."
"किसी किताब के, किसी पन्ने पर, लिखे किसी पैराग्राफ में ये बात पढ़ी थी कि औरतों से ताल्लुक रखती ज्यादातर वारदातों में पहल का कारण खुद औरतें ही होती हैं....."
"तो क्या हो गया?....जरूरी तो नहीं हर कोई हर खूबसूरत दिखती चीज का खामाखा खुद को हकदार समझने लगे।...जान न पहचान मैं तेरा मेहमान...."
"बंगला अगर खूबसूरत हो तो राह चलता भिखारी भी मेहमानियत का लुफ्त उठाने की ख्वाहिश कर बैठता है....."
"भला ख्वाहिश पर किसका क्या जोर? किसका क्या नुकसान?....लेकिन लुफ्त का दायरा सिर्फ ख्वाहिश तक ही रहे तो..."
"यानि इस वक्त जो लुफ्त मैं लूट रहा हूँ उससे आपको कोई एतराज नहीं....."
"किस तरह का?..."
"जिसकी वजह आप हो...."
उसने नज़रें तरेर कर मेरी ओर देखा फिर हंस पड़ी।
"आपका हंसना इस बात की तसदीक करता है मेरे इस लुफ्त के ख्याल से आप भी लुफ्त ले रहीं हैं....वो भी खामाखा...."
"वजह मैं हूँ तो क्यों खामाखा....तब तो हकदार हूँ मैं इसकी..."
"क्या पता इस जेहनी लुफ्त में थोड़ी-बहुत अश्लीलता भी हो...."
"अच्छा..... दो में से क्या.....थोड़ी या बहुत..."
"आगाज हमेशा थोड़े से ही होता है.....परवाज कहाँ तक होगा, क्या पता?..."
"बड़े आशावादी होते हैं आप लोग..."
"उम्मीद न हो तो वैग्यानिक क्या है?.....एक पागल...."
"आपको उम्मीद है की राह चलते मैं आपको हासिल हो जाऊंगी...."
उसने तिरछी नज़रों से मुझे देखा तो जरूर था।
"आपके साथ बैठना हासिल होने जैसा ही कुछ है...."
"अच्छा!.....हासिल होने का ऐसा नजरिया आज पहली बार देखा....."
"बिना आपकी रजामंदी के इससे ज्यादा की आरजू का क्या मतलब...."
"अह्हा.....ये फेंका न जाल.....वही तो मैं कहूं....इतना शरीफ आज तक तो कोई न मिला।...."
"इंसान की शराफत और हसरतों पर काबू, दोनों जुदा मुद्दा है...."
"न............शरीफों की हसरतें काबू में होती हैं..."
"कोई कितना भी शरीफ क्यों न हो.....बेकाबू हसरतों का हल्ला थोंड़े ही मचायेगा....ऐसे मामलों में शराफत एक नाटक ही जानिये.....वैसे भी शराफत पर कोई अवार्ड थोड़े ही मिलता है...."
"मिलता तो है...."
आवाज में शोखी छलकी।
"पर नज़र तो नहीं आ रहा...."
सोचा चांस ले ही लेता हूँ। ज्यादा से ज्यादा उतार ही देगी और क्या।
"पर उन लोगों को नहीं जिनके लिये शराफत बस एक नाटक हो...."
"इस कहे में बंदे ने खुद को शामिल नहीं किया था।"
"लालच दिखी नहीं कि अपनी ही बात को काट गये...."
"ऐसी लालच पर तो फितरतें बदल जाती हैं.....तख्तो-ताज लुट जाते हैं....भला मुझ नाजीच की क्या बिसात...."
"शुरू में तो भाव खा रहे थे अब चटुकारिता पर आ गये...."
"मुझे गुमान तक न था कि ऐसी सूरते हालत में भी कोई किसी काबिल समझेगा......"
"पर जो काबिल है सो है......सूरत से क्या लेना देना..."
"बैठाने से पहले तो आपने ही सूरत का जिक्र छेड़ा था......"
"इस वियावान में किसी साइंटिस्ट के मिलने की उम्मीद नहीं थी ना....."
"तो आप कब से हैं इस पेशे में?...."
"आज सोचता हूँ तो लगता है कि मैं पैदा ही इसीलिये हुआ था लेकिन व्यवसायिक तौर पर तकरीबन 10 साल...."
"उस लिहाज से तो आप उम्र में काफी बड़े हैं?....."
"सवाल ये है कि किससे?...."
"यहाँ मेरे अलावा तो कोइ है नहीं...."
"मेरी उम्र का अपनी उम्र से नापने की आपको जरूरत क्यों कर पड़ी?......."
मैंने उसके चेहरे को एक पल के लिये लरजते हुये देखा।
उसकी इस हया ने दिल को मानों सहलाया हो।
"वार्तालाप की लम्बी लिस्ट में कुछ बातें ऐसी भी हो जया करती हैं जिसके पीछे किसी वजह का होना जरूरी नहीं होता।......"
"औरतें किसी पुरुष से जब उम्र की बातें करतीं हैं तो वही वजह बन जाती है।......"-फिर मैं कुछ सोच कर बोला-"राह चलते किसी मुसाफिर को दिल देना उसमें से एक है।....."
उसके कुछ बोलने से पहले ही मेरी धड़कनें बढ़ गई थीं।
उसने मेरी ओर देखा भी नहीं।
चुप रही।
धड़कनें कुछ और बढ़ गई।
पहली बार पता चला कि खामोशी भावनाओं को कैसे उकसाती जाती है।
इंतजार करता रहा कि वो जल्दी से कुछ बोल दे।
कुछ भी।
पुरूष कितना अधीर हो जाता है ऐसे मामलों में।
"मेरा दो बार तलाक हो चुका है......."
पता नहीं क्यों इस बात से मेरे ऊपर कोई खास फर्क नहीं पड़ा।
क्या इसलिये कि उस वक्त मैं उसके आकर्षण में बध चुका था।
वजह जानने में मेरी कोई खास दिचस्पी नहीं थी लेकिन बात को आगे बढ़ाने के लिये मैं अनायास ही कह गया-
"ऐसा सिर्फ शौकिया तो नहीं हो सकता....."
"अगर मेरी किसी से पटती नहीं तो मैं उसे झेलती नहीं....."
"यानि दोनों बार रजामंदी आपकी ही थी....."
"कुछ था तो ऐसा ही....."
उस वक्त मुझे ये बात काफी रोमांचित कर रही थी कि उसका दो बार तलाक हो चुका था।
क्या वाकई तलाक शुदा औरतें सेक्सी लगने लगती हैं।
या मैं ही काफी दिनों से भूखा था इसलिये ऐसा था।
"तलाक लेने से पहले कुछ ऐसा नहीं हुआ जो आपकी रजामंदी पर असर डालता......"
"हो सकता है आप मुझे बुरी औरत समझे लेकिन मेरे दोनों पतियों को मैं कभी पूरी तरह हासिल नहीं हुई......."
"ये मेरी समझ से परे हैं...."
उसकी बात वाकई मेरी समझ में नहीं आई थी।
"मेरा ऐसा मानना है कि एक औरत को 30 से पहले माँ नहीं बनना चाहिये इसके लिये मैंने हमेशा सावधानी बरती.......अपने पतियों की तरफ से....."
"ओह......"
अब मैं समझा वो क्यों अपने पतियों को पूरी हासिल नहीं हुई।
ये बात तो और भी ज्यादा रोमांचित कर रही थी।
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