गुरुवार, 1 मार्च 2018

तुमने तराश कर मुझे हीरे की शक्ल दी......

आदत तो बन गई दर-व्-दर भी न रहता,
जो बे-खयाले-दीदारे-दिलबर भी न रहता।
तुमने तराश कर मुझे हीरे की शक्ल दी,
घिस-घिस के वर्ना मैं पत्थर भी न रहता।
गुजरती जो मुझ पर थी जानता था मैं ही,
सुनता क्या कोई जब मयस्सर भी न रहता.
सुबहो-शाम मांगने पे भी हालत ये हो गई,
भरता न कासा खाली अक्सर भी न रहता।
मेरी सादगी ने ही मुझे मजलूम कर दिया,
बढ़ते न जुल्म गर यूं बेखबर भी न रहता।
एक मुर्दा जिस्म की कैद में रूह को लेकर,
भटकता इस कदर कोई रहबर भी न रहता।
लिखते थे आप गाता था मैं बस दर्द एक था,
जज्बात न मिलते तो रहगुजर भी न रहता।
इनायत ही रही जो मुझे पहचान मिल सकी,
बदनाम तो मैं वरना इस कदर भी न रहता।
तकदीर का लिखा न मगर बदलता 'जी '
हालात ये न होते तू सुखनबर भी न रहता।
दर-व्-दर = निरुद्देश्य भटकना, बे-खयाले-दीदारे-दिलबर = प्रेमिका-दर्शन के विचार से अज्ञान, मयस्सर = उपलब्ध, कासा = भिक्षा-पात्र/कटोरा, मजलूम = सताया हुआ, रहबर = मार्गदर्शक, जज्बात = भावना, रहगुजर = मार्ग/रास्ता, इनायत = कृपा, सुखनबर = शायर/कवि.

अंतर्द्वंद

मेरी सोची हुई हर एक सम्भावना झूटी हो गई, उस पल मन में कई सारी बातें आई। पहली बात, जो मेरे मन में आई, मैंने उसे जाने दिया। शायद उसी वक्त मु...