गुरुवार, 1 मार्च 2018

सच्ची न मुहब्बत होगी कहीं...

किस-किस से निभाओगे यारी,
किस-किस से रक़ाबत ठानोगे।
मैं सच भी कहूँगा गर तुमसे,
मुमकिन है कि सच ना मानोगे।
ऐसे भी नहीं मरता है कोई?
देखोगे अगर तो जानोगे।
ख्वाहिश न मुझे हमदर्दी की,
खुद सच को देख के मानोगे।
है आज ज़माना दौलत का,
बस ये है हकीकत जानोगे।
सच्ची न मुहब्बत होगी कहीं,
बेशक यूं ज़माना छानोगे।
बस और कहेंगे भी तो क्या,
खुद मरने वाले की जानोगे।
मर गया 'जी ' बस जिनके लिए,
जब मारेंगे वही तो मानोगे।
रक़ाबत = शत्रुता, मुमकिन = संभव, ख्वाहिश = इच्छा, हमदर्दी = सहानुभूति,

अंतर्द्वंद

मेरी सोची हुई हर एक सम्भावना झूटी हो गई, उस पल मन में कई सारी बातें आई। पहली बात, जो मेरे मन में आई, मैंने उसे जाने दिया। शायद उसी वक्त मु...