गुरुवार, 6 दिसंबर 2018

ख़ूबां तेरे अलफ़ाज़ है ख़ूबां तेरी महफ़िल,

ख़ूबां तेरे अलफ़ाज़ है ख़ूबां तेरी महफ़िल,
जुम्बिशे-लब से बहक जाता है तेरी दिल.

कहाँ हैं लफ्ज़ मयस्सर हमें सना को तेरी,




नज़रों के इशारे भी तो होते नहीं काबिल।

लिए हैं इन्तजार में तेरे दीदार की हसरत,
एक नज़र डाल दे हम पे ऐ! हसीं कातिल।

लोहा तेरे होसले का आजमाके ही मानूंगा,
मैदान-ए-कार-ज़ार में तू आ तो मुक़ाबिल।


गरूरे-हुश्न है तुझको बड़ा सुनने में आता है,
मैं आशिक लाख हूँ मगर हूँ नहीं बिस्मिल।

भरा सारा जहां आज भी कुदरत की नेमत से,
होगा नसीब में मिलेगा तुझसे भी अफज़ल।

कोई मग़रूरियत के हुनर से हो डूबता अगर,
मिलता नहीं है उसको मुकद्दर से भी साहिल।

तेरी है बज़्म जुदा और हैं खयालात भी दीगर,
हैं चश्मतर तेरे 'जी' समझेंगे क्या जाहिल।

ख़ूबां = अति सुन्दर, अलफ़ाज़ = शब्द, जुम्बिशे-लब = होटों की कंम्पन, सना = तारीफ़/गुणगान, मैदान-ए-कार-ज़ार = युद्ध का मैदान (क्षेत्र), बिस्मिल = घायल, अफज़ल =उत्तम, मग़रूरियत = घमण्डीपन, जाहिल = मंदबुध्दि

अंतर्द्वंद

मेरी सोची हुई हर एक सम्भावना झूटी हो गई, उस पल मन में कई सारी बातें आई। पहली बात, जो मेरे मन में आई, मैंने उसे जाने दिया। शायद उसी वक्त मु...