मंगलवार, 12 फ़रवरी 2019

रोज आशिकी मे पर फिर जाता हुं बेदार तक

जीस्त है बस मरमरी दो बाहों के इक हार तक
कामयाबी नाकामयाबी सिमटी नही जीतहार तक

मेरी तनहाई की जंग जब तेरी ख्वाईश से हुई
छत पे बैठा बैठा मै उडा चांद के उस पार तक

मेरे लिये जन्नतकी हद सदियोंसे है इस ही तरहा
होकर मेरे दिलसे शुरु फैली हुई दिलदार तक

झूठको बैठे बिठाये मिल गये ग्राहक कई
सच पहुंच ना पाया दुनिया मे कभी खरीददार तक

रोज खाली हाथ अपने होश मे आता हुं मै
रोज आशिकी मे पर फिर जाता हुं बेदार तक

मुझे क्या पता के है कहांतक ये सफर अहसासका
इनकार तक लगता है लगता है कभी इकरार तक

अंतर्द्वंद

मेरी सोची हुई हर एक सम्भावना झूटी हो गई, उस पल मन में कई सारी बातें आई। पहली बात, जो मेरे मन में आई, मैंने उसे जाने दिया। शायद उसी वक्त मु...