सोमवार, 20 जनवरी 2020

प्यार से जीना मुझे बस

सांसों से जब सांसें मिलतीं ,
सांसों में सरगम होती थी
सरगम जब धड़कन से मिलतीं ,
सीने में कम्पन होती थी
हर कम्पन पर , हर धड़कन पर ,
गीत सुनाया करता था
जाने कितने उपनामों से ,
मैं तुम्हें बुलाया करता था
नहीं पता था अरमानों का ,
कबतक इनकी शमा जलेगी
नहीं पता था तूफानों का ,
कबतक इनकी हवा चलेगी ?
उड़ जायेंगे तिनके तिनके ,
किस दिन मेरे अरमानों के
किस दिन मेरी हर चाहत की ,
बेगानी सी चिता जलेगी ?
रह जाएगी तन्हाई बस ,
दहलाने को दिल यह मेरा
घुल जाएगी तरुणाई भी ,
पीकर आसव चन्दन तेरा
कैसे खुद को बहलाऊँगा ,
कैसे खुद को समझाऊँगा
रह जायेगा झुलस झुलस कर,
जब यादों से आंगन मेरा ?
मृगतृष्णाएं नहीं बुझी हैं ,
जिनमें तुम शबनम होती थी
शबनम जब फूलों पर गिरती ,
आँखें ये पुरनम होती थीं
·
मैं नहीं कुछ मैं नहीं कुछ
बस यही मेरा धरम है
ज़िन्दगी में आदमी को
किसलिये इतना भरम है
है कहां अस्तित्व मेरा
कुछ नहीं मुझको खबर है
किन्तु फिर भी आसमां तक
दौड़ती मेरी नजर है
कौन सी मंजिल मुझे अब
पार करनी है यहां पर
कुछ बिखरते कागजों से
भर गई मेरी डगर है
मैं यहां पर किसलिये हूँ
इस धरा पर क्या करूँगा
प्यार से जीना मुझे बस
और बाकी क्या करूँगा
चाहता हूँ मैं यहां पर
झूमना चारों तरफ क्यों
हर तरफ काली घटा को
देखकर मैं क्या करूँगा
आदमी से पूछता हूँ
प्यार का सागर किधर है
सिर्फ खुशियों में समाया
कौन सा मेरा नगर है
ये जन्मों के सम्बंध यहां
जो हमने तुमने देखे थे
अपनी मीठी मुस्कानों से
अधरों पर तुमने रेखे थे
इस धरती के उद्यानों में
फूलों जैसे खिल जायेंगे
मन्द हवा लहरायेगी जब
खुशबू के झौंके आयेंगे
जाने कितनी आशायें भी
परिभाषायें लिख जायेंगी
जाने कितनी गाथायें भी
इतिहास अमर कर जायेंगी
जाने कितने मौसम आकर
अपना परिचय दे जायेंगे
जाने कितने मधुमासों में
हम खो खोकर रह जायेंगे
यह जीवन के प्रारब्ध यहां
जो कदम कदम पर धोखे थे
कितने उर के अरमानों से
ये हमने तुमने भोगे थे
धीरे धीरे इनकी पूरी
राम कहानी हमने देखी
कितने लक्ष्यों से गुजरी वो
मत्त जवानी हमने देखी
नहीं पता था हमको कितने
संज्ञान यहां हो जायेंगे
इक दिन एेसे बिछुड़ेंगे
सुनसान यहां हो जायेंगे
यह सांसों के अनुबन्ध यहां
जो हमने तुमने देखे थे
अपनी मोहक मुद्राओं से
अंतर में तुमने रेखे थे
उम्र कितनी ढल चुकी है
क्या गिनूँ मैं साल इसके
बस तुम्हारे ही नशीले
दिन मुझे बहला रहे हैं
पात कितने झड़ चुके हैं
क्या गिनूँ मैं पतझड़ों को
फूल जो तुमने खिलाये
वो यहां लहरा रहे हैं
हैं वही दिन के उजाले
हैं वही मादक निशायें
डोलती सी फिर रही हैं
हर तरफ पागल हवायें
ये ज़माने भी गुजरकर
हाल अपना कह रहे हैं
शुभ्र शोभित लग रही हैं
दूर की ओझल दिशायें
हैं सभी अहसास जीवित
जो मुझे दुलरा रहे हैं
मान लूँगा अब यहां पर
कुछ बहारें धीर देंगी
वारिशों की ये फुहारें
तन बदन को सींच देंगी
वेदनायें भी सिमट कर
एक आँचल ओढ़ लेंगी
और बांहें भी असीमित
आसमाँ को भींच लेंगी
वक्त के बिखरे हुए क्षण
अंतरण सहला रहे हैं

अंतर्द्वंद

मेरी सोची हुई हर एक सम्भावना झूटी हो गई, उस पल मन में कई सारी बातें आई। पहली बात, जो मेरे मन में आई, मैंने उसे जाने दिया। शायद उसी वक्त मु...