एक मित्र के आग्रह पर कुछ माह पहले बाँदा जाने का कार्यकृम बना डाला उस वक्त झाँसी में थे शाम को दबा दी गाड़ी ...
महोबा के देशी पत्ते की खूब तारीफ सुनी थी जबकि पान नही भी खाते थे फिर भी दो ढो पान लगवा ही लिए सादा बालें।
बढा ही शानदार लगा पान का स्वाद मजा आ गया सारे रास्ते बस पान की ही चर्चा रही ।करीबन 9 बजे बाँदा पहुँचे ।यहाँ तक का सफर तो शानदार रहा था मगर ज्यों ही हमारी गाढी ने बभेरु की तरफ टर्न लिया इसके बाद तो हमने खुद को भगवान की शरण में ही भेजना उचित समझा।
अरे भईया का बतावें साला रोड था या गढअढा के बीच में रोड ।कसम से अगर बरसात का समय होता तो हम पक्का वहीं कपडा उतार करके स्वीमिंग पूल में नहाने का आनन्द उठा लिए होते।जैसे तैसे गन्तव्य पर पहुँचे तो समझ आया कि लोग आज भी बाँदा के नाम से काहे डरत हैं।साला गाँव के गाँव अंधेरे में डूबे हैं खैर ये तो सारी यू पी का ही हाल हैं।
अगले दिन कुछ मित्रों से सम्पर्क किया कुछैक से मिले कुछैक के फोन नही लगे।
एक दो के लगे तो उनके पास वक्त नही था।
काफी मजेदार रहा सफर वहाँ का
गाँवों और उन तक पहुँचाने बाली सडको का नक्शा आज दिन तक दिमाग में हैं।बाँदा के मित्रों से निवेदन है कृपया पहली बरसात पर सूचित करें ताकि हम स्वीमिंग पूल का आनन्द उठा सके। हा डायलोग तो लिखना हम भूल ही गये थे
'' अरे आँण्डू-पाँण्डू समझे हो का ,देशी खायें और देशी साथ लायें हैं,एक मारेगें तो लाल होगे ,और एक मारी न तो टोटई लाल हो जाओगे समझे का''
का समझे
दाऊ जी
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शनिवार, 21 फ़रवरी 2015
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