बुधवार, 18 मई 2022

तन्हाई में हम, किसी को पुकारें

है रिमझिम सी वारिस ये ठंडी फुआरें,
तन्हाई में हम, किसी को पुकारें।

लरजती हैं शाखें, ओ गुल झूमते हैं,
लगता हैं आने को फिर से बहारें।

गरजता है बादल भी खामोशियों से,
चमकती हुई बिजलियाँ क्या पुकारें.

हरी घास पर मानो जादू हुआ है,
नई कोंपलों को ये कैसे निहारे.

हैं शबनम के मोती फ़िदा पत्तियों पर,
सूरज की किरणें भी इनको निखारें।

मस्ती में झूमे हैं गुल-ओ-शजर सब,
जो हर एक को धड़कनों से पुकारें.

खिलता है गुलशन मगर अनमना सा,
कि कलियाँ सभी राह तेरी निहारें।
मैं समंदर हूँ कुल्हाड़ी से नही कट सकता
बाहों में तेरी सकूँ मिल सकेगा,
है उम्मीद बस एक इसी को गुहारें।
मेरा दिले नादान मुझे खोजे कहां कहां
हुए और मादक बदन भीग कर जो,
'जी ' हम तो नादीदा उनको निहारें।


लरजती = झूमती, शाखें = डालियाँ, शबनम = ओंस, गुल-ओ-शजर = फूल और वृक्ष, गुहारें = दुहाई देना/आशावान होकर पुकारना, नादीदा = ललचाया हुआ.

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