गुरुवार, 4 दिसंबर 2025

ये दुःख साला... (राधे भैया to संदीप भैया)

 पुष्पा भैया पूछते हैं कि ये देश इतना दुख obsessed कबसे हो गया. तेरे नाम के 'राधे भैया' के फेलियर के बाद युवाओं का नया आदर्श सन्दीप भैया कैसे हो गया, बच्चन का मनमौजीपन कहाँ खो गया??


दरअसल हर दौर में मनमौजीपन और 'दुख की बदली' का साथ आगे पीछे रहा ही है. हम बुद्ध के देश हैं और बुद्ध का दर्शन है- 'सर्वं दुःखं दुःखं'।  इससे प्रेरणा पाया आदमी दुख ढूंढता रहता है तो दूसरी तरफ चार्वाकों के 'ऋणम कृत्वा घृतं पीबेत' का दर्शन आदमी को मनमौजीपन की तरफ ले जाता रहा है.

वर्तमान में भी यही दोनों चीजें एक साथ या ऊपर नीचे की मात्रा में दिख ही जाती हैं. हालावाद के स्तम्भ बच्चन कहते हैं- " इस पार प्रिये तुम हो, मधु है/ उस पार न जाने क्या होगा." तो विश्वयुद्ध के भय और आजादी के मोहभंग से घिरा दूसरा आदमी कह सकता है- "पर जब सभी कुछ ऊल ही जुलूल है, सोचना फिजूल है."

ये माहौल कोई एक दिन में नहीं बनता, हर तरह के तत्व हर समय दबे दबे से रहते हैं और मौका पाकर बाहर निकल आते हैं. 'मोहब्बतें' के शाहरुख के दुख में दुखी होती पीढ़ी उसी मूवी के 4 छोकरों की मोहब्बत देखकर उमंग से भर जाती है तो 'ग़दर' देखकर किसी सकीना को बचा ले आने के लिए बेताब हो जाती है. 'बेताब' के सन्नी और अमृता सिंह के 'जब हम जवां होंगे' को देखकर न जाने कितने नए नए टीनएजर अपने जवान होने की कई फंतासियों को ओढ़ लेते होंगे. क्या बुरा हुआ ऐसी ही एक पीढ़ी 'तेरे नाम' और एकतरफा मोहब्बत में उजड़ा लड़का राधे भैया का फैन हो गया? राधे भैया का फैन होने के बाद भी लड़का 'पार्टनर' देखना नहीं भूला और कहीं कहीं अपना अक्स गोविंदा में देखने लगा. उसी दौर का लड़का खुद को '3 इडियट्स' का हाफ रेंचो भी समझने लगा, जिसमें किताब न पढ़ने का आधा गुण तो लड़के ने धारण किया लेकिन बिना बैक लगे पास होना भूल गया.
खैर, मूल बात यह है कि हर दौर में कई सारी प्रवृत्ति एक साथ उठती हैं और जनमानस का ट्रेंड जिसे खुद से रिलेट कर पाता है, उसका फर्क ज़्यादा दिखने लगता है. फिलहाल सब दुग्गल साहब लोग सन्दीप भैया को अपना आइडियल बना बैठे हैं क्योंकि युवा जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा इसी प्रतिस्पर्धा में लगा है. यही पीढ़ी बियाह बाद भी दुख से ऐसे ही भरी रही तो एक इनका माइंड सेट कुछ ऐसा होगा-
"अगर कोई जीने की शर्त है तो,
यही आदमी सड़क
का कुत्ता बन जाए या बीवी
का गुलाम या एयर इंडिया
का विज्ञापन."

क्योंकि इस नए युग का मुहावरा होगा- 'फर्क नहीं पड़ता, सर्वं अति दुःखं अति दुःखं

शुक्रवार, 21 नवंबर 2025

Non Responsive इश्क़

 "सबसे खतरनाक होता है इश्क़ का नॉन रिस्पोंसिव हो जाना,
ब्वॉयफ्रेंड शुदा लड़की से मोहब्बत होना और तड़प का बढ़ते जाना"


पाश अगर विद्रोह की जगह इश्क के कवि होते तो ऐसे उद्गारों से युवाओं के प्रेम की पीर को प्रकट कर देते। टूटे दिलों वाले आशिकों को पाश के यहां ठौर मिलता तो नए नए पनप रहे मोहब्बतबाज लड़के सतर्क हो जाते। IMA (इंडियन मोहब्बत एकेडमी) के तराने ऐसी कविताओं से ही गुलजार होते और युवाओं के 'प्रेम की पीर' इश्क से विद्रोह में बदल जाती।

नॉन रिस्पोंसिव इश्क़ आशिकी का वो दौर है जिसमें सामने वाला ध्रुव (G) दूसरे ध्रुव (B) की तरफ झांक कर भी नहीं देखना चाहता, जबकि दूसरे ध्रुव (B ) की निगाह सामने वाले ध्रुव (G) पर ठीक वैसी ही होती है जैसी नरेगा लाभार्थियों की ग्राम प्रधान पर।

नॉन रिस्पोंसिव इश्क भी कई तरह का होता है। पहला, वो जिसमें सामने वाला ध्रुव (G ) भावना शून्य हो माने मुन्नाभाई MBBS के व्हीलचेयर वाले आनंद जी टाइप... सब्जेक्ट के दिमाग तक सिग्नल जाता जरूर है लेकिन रिस्पॉन्स निल बट्टा सन्नाटा।

दूसरा, वो जिसमें सामने वाला ध्रुव (G ) पहले ही किसी और में अपना ध्रुव तारा (C ) ढूंढ चुका होता है। चूंकि मोहब्बत द्वि ध्रुवीय ही अच्छी लगती है, इसमें तीसरा पहिया जुड़ते ही जुगाड़ू टम्पू बन सकता है जो इधर उधर जाकर सबको ठोकता ही रहता है। अत: सामाजिक कल्याण हेतु मोहब्बत को द्विध्रुवीय तक सीमित रखने भी इश्क नॉन रिस्पोंसिव हो जाता है। इसमें सबसे बड़ा योगदान रहता है ध्रुव तारे (C) का, जिसकी इनसिक्योरिटी , बैटर ऑप्शन सर्च और कंपीटिशन को तोड़कर मेरिट का गला घोंट देती है और ये ध्रुव तारा (C ) 'पहले आओ, पहले पाओ' योजना के तहत मोहब्बत में आरक्षण पा जाता है। इस ध्रुव तारा (C) का शिकार आदमी (B) अपने ध्रुव (G) से ही डिलीट या ब्लॉक हो जाता है। इज्ज़त के बचे खुचे चीथड़े समेटकर भागने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं रहता।

तीसरा, नॉन रिस्पोंसिव इश्क़ मर्यादा और सामाजिक बंधनों का है जो आज के हाई टेक दौर में एलियनवादी कल्पनाओं से अधिक कुछ भी नहीं। पुराने दौर में साहित्य भी २ प्रकार का होता था -  प्रकट साहित्य जिसे प्रकट रूप से पढ़ा जाता था और गुप्त साहित्य, जिसका गुप्त रूप से सेवन किया जाता था। आज के हाई टेक दौर में ये भेद समाप्त हो चुका है। प्रकट साहित्य अब अप्रकट हो रहा है तो गुप्त साहित्य इच्छाधारी नागिन की तरह वेश बदलकर हर साहित्य के बीच घुसकर प्रकट होता जा रहा है। गुप्त और प्रकट का भेद समाप्त करते कैमरावादी युग में किसी सामाजिक दबाव से उपजा नॉन रिस्पोंसिव इश्क कलिकाल की अद्भुत फैंटेसी ही लगता है।

एक नॉन रिस्पोंसिव इश्क ऐसा भी है जिसमें सामने वाले ध्रुव (G) को दूसरे ध्रुव (B) में कोई शहूर ही नजर न आए और उसे वो अपने सामने से ऐसे गायब करना चाहे जैसे शाहजहां ने कारीगरों के हाथ गायब करवा दिए थे।

खैर, नॉन रिस्पोंसिव इश्क को अगर नॉन रिस्पोंसिव असेसी मान लें तो बच्चों को ऐसे केस में आनंद आता है, वे जैसा तैसा उठाकर अरेंज मैरिज की तरह 'मटेरियल ऑन रिकॉर्ड' देखकर जल्दी से मामला निपटा देते हैं। दिक्कत वहां होती है जब असेसी नॉन रिस्पोंसिव हो जाए और मटेरियल ऑन रिकॉर्ड में बस कोरे पन्ने हों, सारी सूचनाएं थर्ड पार्टी से मांगनी पड़े और थर्ड पार्टी वही इनसिक्योरिटी कॉम्प्लेक्स से पीड़ित ध्रुव तारा (C) निकल आए। नॉन रिस्पोंसिव असेसी का इलाज तब भी है, लेकिन ऐसे नॉन रिस्पोंसिव इश्क का इलाज कहीं नहीं।
अब जरूरी है आशिकों को आम सहमति से एक SOP बना लेनी चाहिए, IMA (इंडियन मोहब्बत एक्ट) पारित कर देना चाहिए, इश्क के दौर में C जैसे ध्रुव तारों का आरक्षण खत्म कर खुली प्रतियोगिता खोल देनी चाहिए और जल्दी से सुलटा देना चाहिए ये non responsive इश्क :

"कैसे तोडूं, कैसे छोड़ूं तुझको ऐ नॉन रिस्पोंसिव इश्क!,
गूंगा हुआ तो क्या हुआ, तू इश्क तो है" 



रविवार, 17 मार्च 2024

अंतर्द्वंद

मेरी सोची हुई हर एक सम्भावना झूटी हो गई, उस पल मन में कई सारी बातें आई। पहली बात, जो मेरे मन में आई, मैंने उसे जाने दिया। शायद उसी वक्त मुझे कह देना चाहिए था। शायद नही कहा तो भी ठीक किया। फिर दूसरी बात आई, फिर तीसरी, इस तरह जाने कितनी बातें। वो सब बातें घुमती रही और मैं उनमे डूबता रहा। कोई भी बात पूरी हो नही पाई और कितनी बातें तो मैं भूल भी गया।
मैंने इतना सोचा लेकिन फिर भी मैं सच के आसपास तक नही था। मेरी सोच एक झूट से शुरू होती और कितने ही और झूटों के साथ जिन्दा रहती। और आखिर में कुछ और नये झूटों के साथ मर जाती।
झूट की मौत ने मेरी ख़ामोशी को बढ़ा दिया। सब लिखा हुआ झूट हो गया। सोचा हुआ सब झूट हो गया। जब टुकडो में झूट खत्म हुआ, और सच ने अपनी मोजुदगी दर्ज करवाई। बहुत दर्द हुआ, दर्द के बाद सुकून और सुकून के बाद ख़ामोशी। अब मुझे आदत हो गई हैं, चुप रहने की। मेरे शब्द खो गये और मैं उन्हें बाहर ढूंढने लगा। पर यहाँ कई और झूट मिले। वो भी झूट थे, बस मेरे नही थे।
जब पहली बार मैंने अपने झूट को मरते देखा था तो तुमसे कहा क्यों नही ? काश कह दिया होता तो तुम बस एक झूट बोलकर उनकी उम्र बढ़ा सकती थी। या हो सकता था तुम बोलती सच और मैं झूट की लाशे भी न देख पाता।
जो मैं अभी सोच रहा हूँ, हो सकता हैं कल झूट हो जाये। मेरी झूटी सम्भावनाओ की मौत के बाद भी मैं सोचना बंद नही करूँगा।
मैं अब भी तुम्हारे सच के आधार पे कुछ सम्भावनाये और देखता हूँ, सोचता हूँ और फिर चुप हो जाता हूँ। वैसे अब ठीक हूँ मैं। लेकिन मन में कई सारी बातें अब भी आती हैं। शायद ये सब सच के आसपास भी ना हो, पर फिर भी आती हैं।
जाने कितने झूट मरे होंगे, जब पहली बार मैंने सच को महसूस किया। वो झूट जो अगर जिन्दा रहते, तो महसूस होने को जिंदा रखते। माना की जिंदा तो अब भी हैं, क्यों की जान नही ली जाती खुद की। लेनी भी नही चाहिए। अभी जी लेते हैं झूट। सोच लेते हैं जितना सोच सकते हैं, की फिर एक रोज मरते देखेंगे, झूट को।
इसलिए कई झूट बनते हैं, बनते रहेंगे। टूटते रहेंगे। मरते रहेंगे। और जीते भी रहेंगे..a

बुधवार, 18 मई 2022

तन्हाई में हम, किसी को पुकारें

है रिमझिम सी वारिस ये ठंडी फुआरें,
तन्हाई में हम, किसी को पुकारें।

लरजती हैं शाखें, ओ गुल झूमते हैं,
लगता हैं आने को फिर से बहारें।

गरजता है बादल भी खामोशियों से,
चमकती हुई बिजलियाँ क्या पुकारें.

हरी घास पर मानो जादू हुआ है,
नई कोंपलों को ये कैसे निहारे.

हैं शबनम के मोती फ़िदा पत्तियों पर,
सूरज की किरणें भी इनको निखारें।

मस्ती में झूमे हैं गुल-ओ-शजर सब,
जो हर एक को धड़कनों से पुकारें.

खिलता है गुलशन मगर अनमना सा,
कि कलियाँ सभी राह तेरी निहारें।
मैं समंदर हूँ कुल्हाड़ी से नही कट सकता
बाहों में तेरी सकूँ मिल सकेगा,
है उम्मीद बस एक इसी को गुहारें।
मेरा दिले नादान मुझे खोजे कहां कहां
हुए और मादक बदन भीग कर जो,
'जी ' हम तो नादीदा उनको निहारें।


लरजती = झूमती, शाखें = डालियाँ, शबनम = ओंस, गुल-ओ-शजर = फूल और वृक्ष, गुहारें = दुहाई देना/आशावान होकर पुकारना, नादीदा = ललचाया हुआ.

गुरुवार, 12 मई 2022

प्रेम अंत से अनंत 1

 प्रेम आकर्षण है , प्रेम समर्पण है , प्रेम का वास हृदय में होता है , हृदय आत्मा से जुड़कर परमात्मा में लीन हो जाती है। यह प्रेम जब मानवीय होता है तब इसकी सुंदरता और निखरती है , प्रेम की कोई एक रूपरेखा नहीं है , किंतु सच्चा प्रेम पारलौकिक होता है। मनुष्य सौंदर्य प्रेमी है , जहां भी उसे सौंदर्य का साक्षात्कार होता है वह उसकी ओर आकर्षित हो जाता है , यह प्रकृति प्रदत है।

रितेश फौज में एक जवान के नाते तैनात है।

दो सप्ताह की छुट्टी मिलने पर वह अपने घर लौट रहा था।

रास्ते में ट्रेन एक स्टेशन पर आधे घंटे के लिए किसी कारणवश रुक जाती है।

एक प्यार-अनजानी राहों में

रितेश प्लेटफॉर्म पर उतर कर खड़े होते हैं , तभी उनके पास कुछ युवतियां आपस में हंसी मजाक करते हुए एक – दूसरे की खिंचाई कर रही थी , हंसी और मजाक के इस संवाद को कोई भी व्यक्ति सुने तो मुस्कुराए बिना नहीं रह सकता था। रितेश भी उनकी बातों पर मुस्कुरा रहा था। तभी युवतियों के मंडली में एक लड़की ने रितेश की ओर देखा और असहज महसूस करते हुए शर्माते हुए वहां से सभी को खींच कर ले जाती है। अब तो उस लड़की का भी मजाक मंडली में बनने लगता है , सभी सहेली को एक और हंसी का माध्यम मिल गया था ।

इस घटना को रितेश ने एक रोचक ढंग से देखा , साहचर्य उसे आभास हुआ कि उसका हृदय सामान्य गति से अधिक धड़क रहा है , लगता है युवती की शर्म हया और उसका घबराना मस्तिष्क से बाहर नहीं निकल रहा है। रितेश पूरे रास्ते उन युवतियों के हंसने , बोलने और उनके अंदाज सभी को एक-एक पल ,  एक एक क्षण जी रहा था और उससे भी अधिक उस युवती को नहीं भूल पा रहा था जो घबराते हुए सभी सखियों को ले गई थी।

रितेश घर तो पहुंच गया , किंतु उसका दिल अभी भी उस प्लेटफार्म पर लगा हुआ था।

मन मस्तिष्क यही कहता था कब उड़कर उसी प्लेटफार्म पर पहुंच जाऊं और उस दृश्य को फिर अपने आंखों से देखूं। किंतु अब वहां कौन मिलेगा , रितेश बहुत दिनों बाद अपने घर आया किंतु पहले के मुकाबले वह इस बार अधिक खुश नहीं था।

रात को विश्राम करते समय रितेश करवट बदलता रहा किंतु , वह सारी  घटना और वह हंसी – ठिठोली , वह मुखड़ा आंखों से ओझल होने का नाम नहीं ले रहा था। पूरी रात इसी प्रकार करवट बदलते निकल गई , किंतु नींद अभी भी नहीं थी। अब रितेश का हृदय उस योवना के साथ हो गया था अब उस यौवना  के बिना कहीं मन लगना मुश्किल था।

• मेरी डायरी का वो आखिरी पन्ना- 5

आखिर उस अजनबी तरुणी नवयौवना को ढूंढा कैसे जाए ? और क्या पता वह कहां रहती है ?

तरह-तरह के खयाल रितेश के मन में आते।

और उस यौवना / नव युवती से मिलने के ताने-बाने बुनने लगते , किंतु यह असंभव सा कार्य था।

जो व्यक्ति प्रेम के वशीभूत हो जाता है , वह फिर इस जग से बेगाना हो जाता है।

तरह तरह के ख्याल मन में आते रहते किंतु अंत में यही निकलता आखिर उसको ढूंढा कैसे जाए ,  कहां मिलेगी।

दो दिन हो गए रितेश के मन से वह दृश्य और चेहरा ओझल नहीं हो रहा था।

रितेश घर के काम से बाजार निकले वहां उन्हें घर के लिए कुछ आवश्यक सामान लेना था , और एक व्यक्ति से मुलाकात करना था। रितेश सारा सामान लेकर उस व्यक्ति से मिलने पहुंचे , किंतु व्यक्ति को आने में समय था इसलिए रितेश पेड़ के नीचे एक चबूतरे पर बैठ गए जो बाजार के बीचो-बीच था।

चबूतरे के पीछे प्राचीन शिव मंदिर था और कुछ दूर पर एक बड़ा सा गिरिजाघर भी था |

हम दोनों अब कहाँ मिलेंगे ?

रितेश को चबूतरे पर बैठे पंद्रह मिनट हुए होंगे तभी वही चेहरा , वही हंसी – बोली , वही अदाएं लिए वह मूर्ति साक्षात रूप में चलती हुई सामने से आती दिखाई दी। रितेश सोच में पड़ गया !  कहीं या मेरा स्वप्न तो नहीं ? किंतु कुछ क्षण बाद उसका यह भ्रम दूर हो गया , यह कोई स्वप्न नहीं बल्कि साक्षात वही नवयुवती चली आ रही है जो स्टेशन पर मिली थी।

बस क्या था , वह नवयुवती  जैसे ही रितेश के सामने से गुजरी , अकस्मात नवयुवती नई निगाहें रितेश को पहचानी  और फिर शर्माते हुए तेज कदमों से आगे निकल गई। रितेश अब और बेचैन हो गया और उससे मिलने की तीव्र उत्कंठा में वह अपना सारा समान वहीं छोड़कर उस युवती के पीछे पीछे गया।

किंतु कुछ ही देर बाद वह युवती भीड़ में अदृश्य हो गई।

रितेश चारों तरफ ढूंढता रहा किंतु वह युवती फिर एक बार आंखों से ओझल हो गई , काफी देर ढूंढने के बाद भी जब कोई सफलता हाथ नहीं लगी वापस लौट कर अपना सारा सामान लेकर उस व्यक्ति से बिना मिले वापस घर आ गया।

अब बेचैनी पहले से ज्यादा थी , किंतु एक उम्मीद थी की अब उससे मिलने की संभावना और अधिक होगी।

पहले जिसका अता – पता भी नहीं था अब कम से कम वह उसके इलाके के बारे में जानता तो है।

रितेश अब काम रहे , चाहे ना रहे वह छोटे-छोटे कामों का बहाना बनाकर बाजार पहुंच जाता और प्यासी नजरों से उत्सुक नजरों से उसने युवती को ढूंढता रहता। किंतु नवयुवती कहीं दिखाई नहीं देती , चार-पांच दिन रितेश को परेशान हुआ , बाजार में कहीं भी वह युवती नजर नहीं आई।

रितेश को चिंता सताने लगी कि अब छुट्टी की मियाद भी पूरी हो जाएगी और उस नव युवती से अगर नहीं मिला तो मन कैसे लगेगा और कैसे मैं अपने काम पर पूरे मन से जा सकूंगा ?

सुनो! खत लिखना मत भूलना .....

आज रितेश की मां को एक गांव शादी में जाना था , आने में रात हो जाएगी , गांव का विवाह रस्मों – रिवाजों और पूरी हिंदू पद्धति से होती है.

इसलिए रात्रि भोज में समय लगने के कारण रात होने की संभावना अधिक बढ़ जाती है।

मां ने रितेश को अपने साथ शादी में चलने के लिए राजी किया रितेश अनमने ढंग से शादी में जाने को राजी हुआ।

शादी में पहुंचकर मां अपने सखी – सहेलियों में मिल गई रितेश का कोई हम उम्र नहीं था.

इसलिए वह मेहमान खाने में बैठ गया और अपना समय काटने लगा।

एक रस्म की अदायगी के लिए जब सभी लोग आंगन में इकट्ठे हुए , तो रितेश को भी वहां जाना पड़ा सामने कई सारी सखियों के साथ हंसी ठिठोली करते फिर वही चेहरा ठीक सामने नजर आया ! अब रितेश से रहा नहीं जा रहा था , वह चाह रहा था कब उस नवयुवती के हाथ पकड़े और उससे शादी करने का प्रस्ताव रखें।

बस यह भीड़ नहीं होती तो यह कार्य करने में देरी नहीं होती।

किंतु इतने सारे रिश्तेदारी के लोग क्या कहेंगे सब जगह तरह-तरह की बातें बनेगी यह सोच कर कदम एक जगह जैम गए ।

रात को जब वापस घर लौटने की तैयारी हुई , तब मां को छोड़ने उनकी सखी आई और उन सखी के साथ वह नवयुवती भी थी जो मां को विदा करने आई थी। माँ  ने अपने सखी से परिचय कराया यह मेरा बेटा है , फौज में है दो सप्ताह की छुट्टी पर आया है। एक सुंदर और घर को संभालने वाली लड़की की तलाश करके इसका भी घर बसा देती हूं ताकि जल्दी से पोते – पोती घर में दौड़े। माँ ने अपनी सखी और उसकी बेटी से परिचय कराया बेटी का नाम ” मृणाली “  है यह आज पता चला। मृणाली कितना ही प्यारा और सुंदर नाम है।

रितेश अब ऐसे खिल गया जैसे बसंत आने पर प्रकृति खिल जाती है। एक सुंदर और दिव्य नजारा जिस प्रकार हो जाता है उसी प्रकार रितेश का मन और शरीर झूम रहा था , उसके रोम-रोम खिल रहे थे।

रितेश ने रास्ते में मां को मृणाली के विषय में बताया और उससे शादी करने की बात भी कही।

मां गाल पर चपत लगाते हुए कहती है –

‘ पगले  पहले बताता तो मैं बात करते हुए आती , कोई बात नहीं , मैं समय देखकर बात कर लूंगी ! ‘

बस अब क्या था मां के बात करने का इंतजार।

माँ  ने बेटे के मन और बेचैनी का कारण जान लिया था , तो अब मां से कैसे रहा जाता




शनिवार, 17 अप्रैल 2021

सुनो! खत लिखना मत भूलना .....

सुनो ! खत लिखना मत भूलना ...

चाहे कुछ बड़ा भले ना कर पाओ पर जाने से पहले एक खत जरुर लिख जाना ..फेसबूक. व्हॉट्सएप, टिन्डर, मेल, स्काईप और इलेक्ट्रनिक कागज से थोड़ी दूरी बना के डायरी का पन्ना फाड़ उसपे पेन चला कुछ खुरदुरे से शब्द के रूप में भाव उकेर जाना ...
उनको अपने जीवन्त होने का एहसास करा जाना जिनको कभी कुछ कह नहीं पाये, जिनकी फ़िक्र तुम्हे हर पल होती है जिनके रहने ना रहने का तुमपे बड़ा असर पड़ता है उनके नाम कुछ शब्दो की माला कागज़ में छोड़ जाना ...
सुनो तुम छोड़ जाना उस माँ के नाम अपने एक अधकच्चे प्यार के गुंढ़ बात ...
कह जाना खत में पिता को कि हाँ जितना तुम प्यार करते हुए छुपाते हो मुझसे उतना ही मैं भी तुमसे प्यार करता हूँ / करती हूँ पापा ...
एक खत लिख माफ़ी माँग आना तुम अपने भाई बहनो से जिनसे अक्सर बचपन में रिमोट के वास्ते लड़ते थे और हौले से खत के एक हिस्से में पूछ लेना उनसे उनके टूटे दिल का हाल ...
एक खत कर जाना उस बचपन के दोस्त के नाम जिसे बड़ती जवानी की गलियों में कहीं खो आये तुम ...
एक खत घर के बाहर बरामदे में बैठी दादी-नानी के उन किस्से कहानियों के राजकुमार के नाम छोड़ आना जो कभी आने वाले थे सफ़ेद घोड़े में तुमसे मिलने ...
भूलना मत एक खत लिखना उस टूटे वादे के नाम उस अधूरे मुहब्वत के नाम उस पथराई निगाहो वाली लड़की के नाम, उस मायूस लड़के के नाम जो तुम्हारी मजबूरी समझ तुमसे अलग हुआ था कभी...
कुछ प्यार के खज़ाने छोड़ आना कागज़ में अपने सर चड़ जहाँन देखते उस दुलारे बेटे के नाम और उतार आना पन्ने पे दुनिया भर की सारी खुशियों ख्वाहिशों की असीम दौलत अपनी परियों से भी कोमल बिटिया के नाम...

जब इन सब खत को लिख जाओगे तो दिल कुछ अजीब सा हो जायेगा तब जिसके साथ बैठ अपना दिल हल्का करते हुए तुम आँसू बहाओगे तो हाँ आखिर खत उसे देना मत भूलना और उसे अपने दिल की बात पूरे दिल से लिख जाना...

बस लिख ही आना तुम इन सबके नाम एक-एक खत और पहुंचा आना सारे खतो को उन तमाम पते पर जो कभी वहाँ पहुंची ही नहीं क्योंकि जब वो इन लिखे शब्दों को छूयेंगे ना तब महसूस करेंगे तुम्हे और तुम्हारे अंतरआत्मा की मन:दशा को...
तब सिर्फ कागज़ का टुकड़ा और उस्पे लिखे कुछ अल्फाज़ ही नहीं मिलेंगे उन्हे...उन्हे मिलोगे अक्षरसह तुम भी..!!
तो सुनो मत भूलना खत लिखना .....

गुरुवार, 15 अप्रैल 2021

जिंन्दगी भर तेरा हम इंतजार ले के चले

नाउम्मीदी में उम्मीदों का सार ले के चले
जिंन्दगी भर तेरा हम इंतजार ले के चले

जीतके दिल को नही मिलता सुकूं जाने क्यूँ
हर सिकन्दर क्यूँ यहाँ अपनी हार ले के चले

धीरे धीरे तेरी गलियों को भूल जायेंगे
जिसपे जज्बात का हम एतबार ले के चले

कश्तियाँ कैसे उम्मीदों पे खरी उतरेगी
नाखुदा लादके उनमें जो धार ले के चले

जिसकी चाहत पे गुमां करके जिया है ' जी. '
वो तो दुनियाँ की तवज्जोह का भार ले के चले
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ये दुःख साला... (राधे भैया to संदीप भैया)

  पुष्पा भैया पूछते हैं कि ये देश इतना दुख obsessed कबसे हो गया. तेरे नाम के 'राधे भैया' के फेलियर के बाद युवाओं का नया आदर्श सन्दीप...